पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/११४

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- चतुर्थसम्मुल्लास.) ।35 6 ‘. ? पत्पस्तृप्यन्ता । सरीच्यावृषिमंततृप्यन्ताम् f” मटिया- | दृषिगणास्तृप्यन्ताम् । इति ऋषितवें 1., • से जो महा। प्रपौत्र 'चिव विद्वान होकर पढाने ऑरो जोन्डंगक सदृश वि घायुक्त उनकी बियां कन्याओं को विद्यादान देखें उनके तुल्य पुत्र और शिष्य तथा उनके सम्मान उनके सेवक हो उनका सेवन सस्तार करना अघितर्पण है ! थ पिंतणम् ॥ आ सामसदः तिरस्वप्यन्ताम् । आग्नश्वात्ता: पतर स्तृप्यन्ताम् । बहिषदः पितरस्तृप्यन्ता। सोमपाः पितरस्ट प्यन्ता । हविर्सेज: पितरस्तृप्यन्ता। आाज्यपाः पितरस्ट- प्यन्ता । सुकाiलः पितरस्तुष्यन्त।म् । यमiभ्य नमः ! यमदस्तपय मे । िने स्वधा नमः पितर तर्पयामि । पिता- महाय स्वधा नमः पितामह तथैयामि । प्रपितामहाय स्वधा | नमः प्रपतामह तर्पयामि 1 साझे स्वधा नमो मातर तर्पया- मि । पितामह स्त्रा नमः पितामहीं तर्पयामि । प्रपितामढ़ ! स्वेधा नमः पितामहीं तयमि । स्वपन्नै स्वधा नम: स्वपतीं तयामि । सम्बन्धियः स्वधा नमः 'सम्बन्धिनस्त- ! प्र्पयामि । सगो : स्वधा नमः सगोत्रांस्पयामि। इतेि ! पितृतषणा ॥ !!39% ‘ये समे जगदीश्वरे पदार्थविद्यायां च मीदन्ति ने सोमसं "जो मरम औौर पदार्श्वविद्या में निपुण हों वे सोमसद ‘थैरग्नेशुिन विंध्र ग्रहीता ने अग्नि-' वातजों वरित अर्थात् विद्यादि 'व

" पदार्थों के जाननेव।ले -ग्निवल में ?

बहैिषि उत्तमे व्यवहार ” जो उत्तम विद्याधुट्टियुक्त व्यय ार में सीदन्ति से बषिद. स्थित हो वे वपिद ‘‘ये सोमवैश्व मोषधीरस बा पाति पिबन्ति वा वे सोमपा ’ जो ऐश्वर्य के रक्षक और नहषधि रस का पान करने से रोगरहित और अन्य के ऐश्वर्य के रक्ष दे के रोगनाशक हों सोमपा ‘तुम दुहैं

ा को वे ‘ये हविह मुजत भाजयन्ति !

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