वाक्यस्थपदों की आकांक्षा परस्पर होती है । "योग्यता" वह कहाती है कि जिससे जो होसके जैसे जल से सींचना । "आसत्ति" जिस पद के साथ जिसका सम्बन्ध हो उसी के समीप उस पद को वोलना वा लिखना। "तात्पर्य" जिसके लिये वक्ता ने शब्दोच्चारण या लेख किया हो उसी के साथ उस वचन या लेख को युक्त करना । बहुत से हठी दुराग्रही मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिमाय से विरुद्ध कल्पना किया करते हैं । विशेष कर मतवाले लोग क्योंकि मत के आग्रह से उनकी बुद्धि अन्धकार में फंस के नष्ट हो जाती है इसलिये जैसा मैं पुराण, जैनियों के ग्रन्थ, बायबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनमें से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्प्यजाति की उन्नति के लिये प्रयत्न करता हूँ, वैसे सब को करना योग्य है। इन मतों के थोड़े २ ही दोष प्रकाशित किये हैं जिनको देखकर मनुष्य लोग सत्यासत्य मत का निर्णय कर सकें और सत्य का ग्रहण तथा असत्य का त्याग करने कराने में समर्थ हों । क्योंकि एक मनुष्य जाति में बहका कर विरुद्ध बुद्धि कराके एक दूसरे को शत्रु बना लड़ा मारना विद्वानों के स्वभाव से बहिः है । यद्यपि इस ग्रन्थ को देख कर अविद्वान लोग अन्यथा ही विचारेंगे तथापि बुद्धिमान लोग यथायोग्य इसका अभिप्राय समझेंगे इसलिये मैं अपने परिश्रम को सफल समझता और अपना अभिप्राय सब सज्जनों के सामने धरता हूं । इसको देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करना मेरा वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है । सर्वात्मा सर्वान्तर्यामी सच्चिदानन्द परमात्मा अपनी कृपा से इस आशय को विस्तृत और चिरस्थायी करे ॥
स्थान महाराणजी का उदयपुर
भाद्रपद शुक्लपक्ष संवत् १९३९.