पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१२०

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है न हैं। चतुर्थससुलास’ है? १ ०७ १, कि . यथा प्लवेनोपलेन निमजत्युदके तरन् । तथा निमज्जतोsवस्तादज्ञौ दानुप्रतीच्छक ॥ मनु०४। ११४ ॥ | जैसे पत्थर की नौका में बैठ के जल में तरनेवाला डूब जाता है वैसे आज्ञाती दाता और गीता दोनों अधोगति अर्थात् दुख को प्राप्त होते हैं । । पाडिया के लक्षण है। धर्मध्वजी सदालुब्धश्छाझिनको लोकदम्भकः। बंडालांतका जेया हस्तः सवभसन्धक, ॥ १ ॥ आंधोदृष्टिभैष्कृतिक’ स्वार्थसाधनतत्प : । शो मिथ्याविनीत वकन्तचरो द्विजः ॥ २ ॥ मनु० ४ । १६५ । १९६ ॥ ( धर्मध्वजी ) धर्म कुछ भी न करे परन्तु धर्म के नाम से लोगो को ठगे (सदाल: ) सर्वदा लोभ से युक छाशिक:) कफ्टी (लोकदम्भक: ) संसारी मनुष्य के सामने अपनी पढ़ाई के गपोड़े मारा करे ( हि नः ) प्राणियों का घातक अन्य से वैरबुद्धि रखनेवाला ( सवभिसन्धक: ) सब अच्छे और बुरों से भी मेल रक्खे उसको वेंडडलवातक अथोत् विडाले के समान चूर्नी र नीच समझो 7 १ ॥ ( अधोदृष्ट्रिः ) कीर्ति के लिये नीचे दृष्टि रखे (नैष्कृतिक ) ईष्र्य किसी ने उस ' का पैसा भर अपराध किया हो तो उसका बदला प्राण तक लेने को तत्पर रहै ( स्वार्थसाधन० ) चाहें कपट अधर्म विश्वासघात क्यों न हो अपना प्रयोजन साधने १ में चतुर ( शठ) 'चाहै अपनी बात झूठी क्यों न हो परन्तु इठ कभी न छोड़े ( मिथ्याविनीत: ) झूठ झूठ ऊपर से शील संतोष और साधुता दिखलाये उसको ( वकऋत्त ) बगुले के समान नीच समझो ऐसे २ लक्षों वाले पाखण्डी होते हैं। उनका विश्वास व सेवा कभी न करें । । धर्म शनैः सचिनुया बमकमिव पुत्तिकाः । परलोकसहाया सर्वभूतान्यपीडयन् ॥ १ ॥ नामुत्र हि सहायाd पिता माता च तिष्ठतः। न पुत्रदार न झातिधर्मस्तिष्ठति केवलः ॥ २ ॥