पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

9 सस्त्रार्थनाश. ॥ ८ - - - -!- 4 कि एकः प्रजायते जन्तुक एव प्रलीयते । एकोनुभुत सुज्तमेक एक च दुकृतम् ३ ॥ मनु° ४ से २३८-२४० ॥ एकः पापानि कुरुते फल अक्त महाजनः । भोक्ता विश्रमुच्यन्ते कर्ता दोषण लियते ॥ ४ ॥ महाभारत । उद्योग० नजागरप० ॥ आ० ३२ ॥ मृत शरीरभुत्सृज्य काष्ठलोटसमें क्षिती । विमुख बान्धवा यानित अस्तमनुगच्छति 1 ५ ॥ मनु० ५ । २४१ ॥ वी और पुरुष को चाहिये कि जैसे पुस्तिका अर्थात् दीमक वर्तमीक अर्थात् बांसी को बनाती है वैसे सब भूतों को पीडा न देकर परलोक अर्थात् परजन्म के सुखार्थ ' धीरे २ धर्म का खचय करे : १ ॥ क्योंकि परलोक में न सात न पिखा न पुत्र न ली न ज्ञाप्ति सहाय कर सकते हैं किन्तु एक धर्म ही सहायक होता है।I २ । देखिये ' अकेला ही जीव जन्म और मरण को प्राप्त होता, एक ही धर्म का फठ जो सुख और अधर्म का जो डु वरूप फल उस को भोगता है 1 ३ } यह भी समझ लो कि कुटुम्घ में एक पुरुष पाप करके पदार्थ लाता है और महाजन अर्थात् सब कुटुम्ब उसको भोगता है भोगनेवाले दोषभागी नहीं होते किन्तु अधर्म का कर्ता ही देष का भागी होता है ॥ ४ ॥ जब कोई किसी का सम्बन्धी सर जाता है उसको मट्टी के ढेले के समान भूमि में छोड़कर पीठ दे बन्धुवर्ग विमुख होकर चले जाते हैं कोई डसके | साथ जानेवाला नहीं होता किन्तु एक धर्म ही उसका सही होता है ॥ ९ है॥ तस्माद्धर्म सहयार्थ नियं सहुिँचनुयाच्छनैः। धनुण हि सहायेन तमस्तरति हुस्तरम् ॥ १ ॥ धमप्रधान पुरुष तपसा हतकिल्विषम् । परलोक नयत्याशु भास्कृन्द्र ग्खचैरीरिणयू ॥ २ ॥ मनु॰ ४। २४२ से २४३ ॥