पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१२२

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-AAC Ass1x चतुसमुल्लास। ॥ १० उस हेतु से परलोक अर्थात् परजन्म में सुख और जन्म के सहायार्थ नित्य धर्म का सश्चय धीरे २ करता जाय क्योंकि धर्म ही के सहाय से बड़े २, दुस्तर दु।

खसागर को जीब तर सकता है ॥ १ ॥ किन्तु जो पुरुष धर्म ही को प्रधान सम

झता जिसका धर्म के , अनुष्ठान से कर्तव्य पाप दूर हगया उसको प्रकाशस्वरूप औौर आ।काश जि सका शरीरवत् है उस परलोक अर्थात् परम दर्शनीय परमात्मा को धर्म ही शीघ्र प्राप्त करता है ॥ २ ॥ इसलिये:- बुढ़कारी दुदान्तः क्राचारैरसंवसन् । अहिंसो दमदानाभ्यां जयेरस्वर्ग तथावतः ॥ १ । ॥ वाच्य नियता: सर्वे वाड्मूला वाग्विनिमृताः । तान्तु य: स्तनाव से सवस्तयन्नरः ॥ २ ॥ श्राचारलभते ह्युराचारादीप्सिताः प्रजाः । आचारारूनमझथ्यमाचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ ३ H : मनु० ४ व २४६ व २५६ । १५६ ॥ सदा दृढ़कारीकोमल स्वभावजितेन्द्रिय हिंसक, क्रूर दुष्टाचारी पुरुषों से पृथक् रहनेहारा, धर्मात्मा मन को जीतने और विद्यादि द्वान से सुख को प्राप्त होवे ॥ १’॥ परन्तु यह भी ध्यान में रक्खे कि जिस वाणी में सब अर्थ अथात् व्यवहार निश्चित होते हैं वह वाणी ही उनका मूले और वाणी ही से सब -व्यवहार सिद्ध होते हैं उंस वाणी को जो चोरता अर्थात् मिथ्याभाषण करता है वह सब चोरी आदि पापों का | करनेवाला है ॥ २ ॥ इसलिये मिथ्याभाषणादिरूप अधर्म को छोड़ जो धर्माचार अर्थात् ब्रह्मचर्य जितेन्द्रियता से पूर्ण आायु और धर्माचार से उत्तम प्रजा तथा अक्षय धन को प्राप्त होता है तथा जा धर्माचार में वर्नाकर दुष्ठ लक्षों का नाश करता है। उसके आचरण को सदा केया करे । क्योंकि :

दुराचारो हि पुरुष लोके भवति निन्दितः ।

दुःखभागी व सतत व्याधितोSल्पायुरेव व ॥ म० ४ । १५७ ॥