पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१२४

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maanwar चतुर्थसमुल्लासः ।। १११ । श्रात्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता । । यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥१॥ निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते । अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डितलक्षणम् ॥ २॥ क्षिप्रं विजानाति चिरंशृणोति, विज्ञाय चार्थ भजते न कामात् । . नासम्पृष्टो झुपयुङ्क्ते परार्थे तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥३॥ नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् । श्रापत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः ॥ ४॥ प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्। श्राशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥ ५ ॥ श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा । असंभिन्नार्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः॥६॥ ये सब महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर अध्याय ३२ के श्लोक हैं-(अर्थ)। जिसको आत्मज्ञान सम्यक श्रारम्भ अर्थात् जो निकम्मा आलसी कभी न रहे सुख, । दुख, हानि, लाभ, मानापमान; निन्दा, स्तुति में हर्ष शोक कभी न करे, धर्म ही में नित्य निश्चित रहै, जिसके मन को उत्तम २ पदार्थ अर्थात् विषयसम्बन्धी वस्तु आकर्षण न कर सके वहीं पण्डित कहाता है।॥ १॥ सदा धर्मयुक्त कमों का सेवन, अधर्मयुक्त कामों का त्याग, ईश्वर, वेद, सत्याचार की निन्दा न करनेहारा, ईश्वर श्रादि में अत्यन्त श्रद्धालु हो यही पण्डित का कर्चव्याकर्त्तव्य कर्म है ॥ २॥ जो कठिन विषय को भी शीघ्र जान सके, बहुत कालपर्यन्त शास्त्रों को पढ़े, सुने और विचार, जो कुछ जाने उसको परोपकार में प्रयुक्त करे, अपने स्वार्थ के लिये कोई काम न ! करे, विना पूछे वा विना योग्य समय जाने दूसरे के अर्थ में सम्मति न दे वही प्रथम : । प्रज्ञान पण्डित को होना चाहिये ॥३॥ जो प्राप्ति के अयोग्य की इच्छा कभी न करे नष्ट हुए पदार्थ पर शोक न करे, आपत्काल मे मोह को न प्रान अर्थात् व्याकुल ।