पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१२९

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सत्यार्यप्रकाश ॥ दास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि ॥ ऋ० ॥ मं० १० । स० ८५ । मं० ४५ ॥ . हे ( मीढ्व, इन्द्र ) वीर्य सीचने में समर्थ ऐश्वर्ययुक्त पुरुष तू इस विवाहित । स्त्री वा विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्ययुक्त कर इस विवाहित स्त्री में दश । पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवी स्त्री को मान । हे स्त्री 'तू भी विवाहित पुरुष वा नियुक्त

पुरुषों से दश सन्तान उत्पन्न कर और ग्यारहवे पति को समझ। इस वेद की आज्ञा

| से ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यवर्णस्थ स्त्री आर पुरुष दश दश सन्तान से अधिक उत्पन्न न करें क्योंकि अधिक करने से सन्तान निर्बल, निवुद्धि, अल्पायु होते हैं। और स्त्री तथा पुरुष भी निर्बल, अल्पायु और रोगी होकर वृद्धावस्था में बहुतसे दु.ख पाते हैं (प्रश्न ) यह नियोग की बात व्यभिचार के समान दीखती है ( उत्तर) जैसे विना विवाहितों का व्यभिचार होता है वैसे विना नियुक्तों का व्यभिचार कहाता है इससे यह सिद्ध हुआ कि जैसा नियम से विवाह होने पर व्यभिचार नही कहाता तो नियमपूर्वक नियोग होने से व्यभिचार न कहावेगा, जैसे-दूसरे की कन्या का दूसर कुमार के साथ शास्त्रोक्त विधिपूर्वक विवाह होने पर समागम में व्यभिचार वा पाप लज्जा नहीं होती वैसे ही वेद शास्त्रोक्त नियोग में व्यभिचार पाप लज्जा न मानना चाहिये । प्रश्न ) है तो ठीक परन्तु यह वेश्या के सदृश कर्म दीखता है ! (उत्तर ) नहीं क्योंकि वेश्या के समागम में किसी निश्चित पुरुष वा काई नियम नहीं है और नियोग मे विवाह के समान नियम हैं जैसे दूसरे को लडकी देने दूसरे के साथ समागम करने मे विवाहपूर्वक लज्जा नहीं होती वैसे ही नियोग में भी न होनी चाहिये । क्या जो व्यभिचारी पुरुष वा स्त्री होते हैं वे विवाह होने पर भी कुकर्म से बचते हैं । ( प्रश्न ) हमको नियोग की बात में पाप मालूम पडता (उत्तर , जो नियोग की बात में पाप मानते हो तो विवाह मे पाप क्यों नहीं मानने ? पाप तो नियोग के रोकने में है क्योंकि ईश्वर के सृष्टिक्रमानुकूल स्त्री पुरुप सा स्वाभाविक व्यवहार झकही नहीं सकता सिवाय वैराग्यवान् पूर्ण विद्वान योगियों गई ? क्या गर्भपातनम्पप भ्रण हत्या और विधवा स्त्री और मृतक स्त्री पुरुषों के महा-: भन्याप को पाप नही गिनत हो ? क्योंकि जबतक वे युवावस्था में है मन मे सन्ता- नाधिकार विषय की चाहना हानवाला को किसी राज्यव्यवहार वा जातिव्यव- घर मे रपट होने में गुम २ रकम बुरी चाल मे होते.रहते हैं इस व्यभिचार -