पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१३८

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antatuteruniSEALTSAILAntaurasiunnamunlukhultualurusuntusindianwarunt Incotlanlulteusunitualsu T undminiruddwinnitusLaaliL.RANE 10 mmmmwammmsmame verana. - - - - - -- --- - - चतुर्थममुल्लास ।। यस्मात्त्रयोप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम् ।। गृहस्थनैव धाय॑न्ते तस्माजज्येष्ठाश्रमो गृही ॥ ३ ॥ स संधार्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता । सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यों दुर्बलन्द्रियैः ॥ ४ ॥ मनु०३ । ७७-७६ ॥ जैसे नदी और बड़े २ नद तबतक भ्रमत ही रहते हैं जबतक समुद्र को प्राप्त नहीं होते वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं विना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नही होता । जिससे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि दे के प्रतिदिन गृहस्थ ही धारण ' , करता है इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है अर्थान सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है , इसलिये मोक्ष और ससार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम का। वारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्वल पुरुषों से धारण करने अयोग्य है उसको अच्छे प्रकार धारण करे । इसलिये जितना कुछ व्यवहार । संसार में है उसका आधा गृहाश्रम है जो यह गृहाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम कहां से हो सकते ? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रश. सनीय है परन्तु तभी गृहाश्रम मे सुख होता है जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारो के ज्ञाता हो इमलिये गृहा. श्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह है । यह संभर से समावर्त्तन, विवाह और गृहाश्रम के विषय मे शिक्षा लिख दी । ममक प्राग वानप्रस्थ और संन्याम के विषय में लिखा जायगा । इति श्रीमदयानन्दसरस्वतीस्वामिकृतं सत्यार्थप्रकाश सुभाषाविभाषिते समावर्तनविवाहगृहाश्रमविषय चतुर्थः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥ ४ ॥