पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१३९

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स / र/८ ४.-1 प PA Aama HTAKAM अथ पञ्चमसमुल्लासारम्भः॥ neelms REETTEACKERALENTIRIDW AR अथ वानप्रस्थसंन्यासविधिं वक्ष्यामः॥ ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत् ।। शत० कां० १४ ॥ मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ होकर वान- प्रस्थ और वानप्रस्थ होके सन्यासी होवें अर्थात् यह अनुक्रम से आश्रम का विधान है। एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत्स्नातको द्विजः । वने वसेत्तु नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः ॥ १ ॥ गृहस्थस्तु यदा पश्येहलीपलितमात्मनः। अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत् ॥ २ ॥ सत्यज्य ग्राम्यमाहारं सर्वं चैव परिच्छदम् । पुत्रेषु भार्या निःक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव वा ॥ ३ ॥ अग्निहोत्रं समादाय गृह्य चाग्निपरिच्छदम् ॥ ग्रामादरण्यं निःसत्य निवसेन्नियतेन्द्रियः ॥ ४ ॥ मुन्यन्नैर्विविधैर्मेध्यैः शाकमूलफलेन वा! एतानेव महायज्ञान्निपेद्विधिपूर्वकम् ॥५॥ मनु०६।१-५॥ में इस प्रकार स्नातक अर्थात् ब्रह्मचर्यपूर्वक गृहाश्रम का का द्विज अर्थात् ब्राह्मण । भत्रिय और वैश्य गृहाश्रम में ठहर कर निश्चितात्मा और यथावन् इन्द्रियों को जीत के एता"