पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१४०

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१२८ सत्यार्थप्रकाशः॥ वन में बसे ॥ १॥ परन्तु जब गहस्थ शिर के श्वेत केश और त्वचा ढीली हो- जाय और लड़के का लड़का भी होगया हो तब वन में जाके वसे ॥ २ ॥ सव ग्राम के आहार और वनादि सब उत्तमोत्तम पदार्थों को छोड पुत्रों के पास ली। को रख वा अपने साथ ले के वन में निवास करे ॥ ३ ॥ साङ्गोपाङ्ग अग्निहोत्र को ले के ग्राम से निकल दृढेन्द्रिय होकर अरण्प में जाके वसे ॥ ४ ॥ नाना प्रकार : के सामा आदि अन्न, सुन्दर २ शाक, मूल, फल, फल, कदादि से पूर्वोक्त पंचम- । हायज्ञों को करे और उसी से अतिथिसेवा और आप भी निर्वाह करे ॥ ५ ॥ स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यादान्तो मैत्रः समाहितः । दाता नित्यमनादाता सर्वभूतानुकम्पकः ॥ १॥ श्रप्रयत्नः सुखार्थेपु ब्रह्मचारी धराशयः । शरणेष्वममश्चैव वृक्षमूलनिकेतनः ॥२॥ मनु०।६।८।२६॥ स्वाध्याय अर्थात् पढने पढ़ाने में नित्ययुक्त, जितात्मा, सबका मित्र, इन्द्रियों का दमनशील, विद्यादि का दान देनहारा और सब पर दयालु, किसी से कुछ भी पदार्थ न लेवे इस प्रकार सदा वर्तमान करे ॥ १॥ शरीर के सुख के लिये अति : प्रयत्न न करे किन्तु ब्रह्मचारी रहे अर्थात् अपनी खी साथ हो तथापि उमसे . विषयचेष्टा कुछ न करे, भूमि में सोवे, अपने आश्रित वा स्वकीय पदार्थों में ममता' न करे, वृक्ष के मूल में वसे ॥ २ ॥ तपःश्रद्धे ये ह्यपवसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसो भैक्षचयां ' चरन्तः । सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्राऽमृतः स पु. रुषो ह्यव्ययात्मा ॥ मुण्ड० ॥ खं० २ । मं० ११ ॥ जो शान्त विद्वान् लोग वन में तप धर्मानुष्ठान और सत्य की श्रद्धा करके भिक्षाचरण करते हुए जगल में वसते हैं वे जहा नाशरहित पूर्ण पुरुष हानि ला- भरहित परमात्मा है वहां निर्मल होकर प्राणद्वार से उस परमात्मा को प्राप्त होके ' आनन्दित होजाते हैं । अभ्यादधामि समिधमग्ने बतपते त्वयि । तञ्च श्रद्धां चापैमीन्धे त्वां ढीतितो अहम् ॥ यजुर्वेदे ॥ अध्याय २० । मं० २४॥