पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- - - - -- पञ्चमसमुल्लासः ॥ प्राजापत्यां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम् । श्रात्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रबजेट गृहात् ॥ २॥ यो दत्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात् । तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः ॥ ३॥ मतु०६॥३८ । ३६ ॥ प्रजापति अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति के अर्थ इष्टि अर्थात् यज्ञ करके उसमें यज्ञोपवीत शिखादि चिन्हों को छोड़ आहवनीयादि पांच अग्नियों को प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पाच प्राणो मे आरोपण करके ब्राह्मण ब्रह्मवित् घर में निकल कर संन्यासी होजावे ॥ १ ॥ २ ॥ जो सब भूत प्राणिमात्र को अभय- दान देकर घर से निकल के संन्यासी होता है उस ब्रह्मवादी अर्थात् परमेश्वर प्रका- शित वेदोक्त धर्मादि विद्याओ के उपदेश करनेवाले संन्यासी के लिये प्रकाशमय अर्थात् मुक्ति का आनन्दस्वरूप लोक प्राप्त होता है । (प्रश्न ) संन्यासियों का क्या धर्म है ? (उत्तर) धर्म तो पक्षपातरहित न्यायाचरण, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग, वेदोक्त ईश्वर की आज्ञा का पालन, परोपकार, सत्यभाषणादि लक्षण सव आश्रमियों का अर्थात् सब मनुष्यमान का एक ही है परन्तु संन्यासी का विशेष धर्म यह है कि:- दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरत् ॥ १ ॥ क्रुद्धयन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् । सप्तद्वारावकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत् ॥ २॥ अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः ।। श्रात्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह ॥ ३ ।। क्लतकेशनखश्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान् । विचरेन्नियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन् ॥ ४॥ इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषज्ञयेण च ।