पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१४५

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पचमसमुल्लासः ॥ १३१ सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते ॥ १६॥ । मनु० अ०६ । ४६ । ४८ । ४६ । ५२ । ६० । ६६ । ६७ । ७०-७३ । ७५ | ८०। ६१ । १२ । ८१॥ जब संन्यासी मार्ग में चले तब इधर उधर न देखकर नीचे पृथिवी पर दृष्टि रख के चले । सदा वस्त्र से छान के जल पिये निरन्तर सत्य ही बोले सर्वदा मन से विचार के सत्य का ग्रहण कर असत्य को छोड़ देवे ॥ १ ॥ जब कहीं उपदेश वा संवादादि में कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा निन्दा करे तो संन्यासी को उचित है कि उस पर आप क्रोध न करे किन्तु सदा उसके कल्याणार्थ उपदेश ही करे और एक मुख का, दो नासिका के, दो आंख के और दो कान के छिद्रो में बिखरी हुई वाणी को किसी कारण से मिथ्या कभी न बोले ।। २ ॥ अपने आत्मा: और परमात्मा मे स्थिर अपेक्षारहित मद्य मांसादि वर्जित होकर आत्मा ही के स- । हाय से सुखार्थी होकर इस ससार में धर्म और विद्या के बढ़ाने में उपदेश के लिये। ' सदा विचरता रहे ॥ ३ ॥ केश, नख, डाढ़ी, मूछ को छेदन करवावे सुन्दर पात्र दण्ड और कुसुम्भ आदि से रंगे हुए वस्त्रों को ग्रहण करके निश्चितात्मा सब भूतों को पीड़ा न देकर सर्वत्र विचरे ॥ ४ ॥ इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक, रागद्वेष : को छोड़, सब प्राणियों से निर्वैर वर्तकर मोक्ष के लिये सामर्थ्य बढ़ाया करे ॥५॥ कोई संसार में उमको दूषित व भूपित करे तो भी जिस किसी आश्रम में वर्त्तता हुआ पुरुष अर्थात् संन्यासी सब प्राणियों में पक्षपातरहित होकर स्वय धर्मात्मा और अन्यों को धर्मात्मा करने में प्रयत्न किया करे । और यह अपने मन में निश्चित । जाने कि दण्ड, कमण्डलु और काषायवन आदि चिन्ह धारण धर्म के कारण नहीं हैं, सब मनुष्यादि प्राणियों का सत्योपदेश और विद्यादान से उन्नति करना संन्यासी का मुख्य कर्म है ।। ६॥ क्योंकि यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल पीस के गदरे जल में . डालने से जल का शोधन होता है तदपि विना उसके डाले उसके नाम कथन । वा श्रवणमात्र से जल शुद्ध नहीं हो सकता ॥ ७ ॥ इसलिये ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्म- ' वित् संन्यासी को उचित है कि ओंकारपूर्वक सप्तव्याहृतियों से विधिपूर्वक प्राणायाम , जितनी शक्ति हो उतने करे परन्तु तीन से तो न्यून प्राणायाम कभी न करे यही संन्यासी का परमतप है।॥ ॥ क्योकि जैसे अग्नि में तपाने और गलाने से : धातुओं के मल नष्ट होजाते हैं वैसे ही प्राणों के निग्रह से मन आदि इन्द्रियों के दोष - - -- - - - - - - -