पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सत्यार्थप्रकाशः ! । भस्मीभूत होते हैं। ९ । इसलिये संन्यासी लोग नित्यप्रति प्राणायामों से आत्मा, । अन्तःकरण और इन्द्रियों के दोष, धारणाओ से पाप, प्रत्याहार से मंगदोप, ध्यान से अनीश्वर के गुणों अर्थात् हर्ष शोक और अविद्यादि जीव के दोषों को भस्मीभूत करें ॥ १० ॥ इसी ध्यान योग से जो अयोगी अविद्वानों को दुःख से जानने योग्य छोटे बड़े पदार्थों में परमात्मा की व्याप्ति उसको और अपने आत्मा और अन्तर्यामी परमेश्वर की गति को देखे ॥ ११॥ सब भूतों से निर्वैर इन्द्रियों के विषयों का , त्याग, वेदोक्त कर्म और अत्युग्र तपश्चरण से इस संसार में मोक्षपद को पूर्वोक्तसं- । न्यासी ही सिद्ध कर और करा सक्ते हैं अन्य नहीं ॥ १२॥ जब संन्यासी सब भावों में !

अर्थात् पदार्थों में नि.स्पृह कांक्षारहित और सब बाहर भीतर के व्यवहारों में भाव से :

। पवित्र होता है तभी इस देह मे और मरण पाके निरंतर सुख को प्राप्त होता है।। १३॥ इसलिये ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासियों को योग्य है कि प्रयत्न से दश । लक्षणयुक्त निम्नलिखित धर्म का सेवन करें।। १४॥ पहिला लक्षण- धृति) सदा धैय : रखना। दूसग-(क्षमा) निन्दा स्तुति मानापमान हानिलाभ आदि दु.खों में भी सहन- शील रहना। तीसरा-(दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् । अधर्म करने की इच्छा भी न उठे । चौथा-(अस्तेय) चोरीत्याग अर्थात् विना आज्ञा

वा छल कपट विश्वासघात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरुद्ध उपदेश से परपदार्थ का

। ग्रहण करना चोरी और उसको छोड़ देना साहूकारी कहाती है। पांचवां-(शौच राग- . द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल मृत्तिका मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी। छठा--(इन्द्रियनिग्रह) अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म ही में सदा चलाना ।। सातवां-(धीः) मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ दुष्टों का संग आलस्य प्रमाद आदि को । छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन सत्पुरुषों का संग योगाभ्यास से बुद्धि का वढ़ाना। , आठवा-(विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा मन मे वैसा वाणी में जैसा । वाणी में वैसा कर्म में वर्त्तना विद्या, इससे विपरीत अविद्या है । नववां-( सत्य ) , जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना और वैसा ही करना। । तथा दशवां--(अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना ' धर्म का लक्षण है । इस दश लक्षणयुक पक्षपातरहित न्यायाचरण धर्म का सेवन । चारों आश्रमवाले करें और इसी वेदोक्त धर्म ही में आप चलना औरो को समझा । कर चलाना संन्यासियों का विशेष धर्म है ।। १५ । इसी प्रकार से धीरे २ सब