पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१५५

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पटसगुलास: । १४ -भन्न इन्द्रों जयाति न पर जयाता अधि।जो राऊंड राज या । चक्कृत्य ईड्डयो वन्यश्चएसयों नमुस्य भवह ॥ अथवे० कॉ० ६। अनु० १० । व० ४८ । मं० १ ॥ । हे मनुष्यो ! जो ( इह ) इस मनुष्य के समुदाय में ( इन्द्रः ) पर ऐश्वर्य का ! कल शत्रुओं को (जयाति ) जीत सके ( न पराजया ) जो शत्रुओं से पराजित | न हो ( राजसु ) राजाओं से ( अधिराज: ) मोंपरि विराजमान ( राजयार्थी ) } प्रकाशमान हो ( चर्चस्य: ) सभापति होने को अत्यन्त योग्य ( ईख्यः ) प्रशंसनीय गुण कर्म स्वभावयुक्क ( वन्ग्र: ) सरकरणीय ( चोपसद्य ) समीप जाने और शरण लेने योग्य ( नमस्य: ) सब का साननीय ( भव होवे उस को सभापति राजा करे _ । इमन्दबा असएन सुवध्वं मढ़ते क्षत्रायं महते ज्येष्ठथाय मढ़ते जागरज्यायेन्दंस्थेन्द्विययं ॥ यजु० ॥ अ० & । मं० ४० t j हे ' देवा ) विद्वानो राजप्रजाजनो तुम ( इमम् ) इस प्रकार के पुरुष को ( सहते क्षत्राय ) बड़े चक्रवर्ताि राज्य ( महसे ज्०ष्ठथयाय ) सब से बड़े होने ( महते ! जानराज्याय ) बड़े २ विद्वानों से युक्त राज्य पालन और ( इन्द्रस्पोन्द्रि ।य , परम ऐश्वर्ययुक्त राज्य और धन के पालने के लिये ( असपत्न७सुवध्व ) सम्मति करके

सर्वत्र पक्षपातरहित पूर्ण विद्या विनय युक्त सब के मित्र सभापति राजा को सवो- !

धीश मान के सब भूगोल शपुरदित करो और स्थिरा बंः सन्वायुधा पएद वलू उत प्रतिष्कर्भ। युस्माकमस्तु पनीयसी मा मयस्य विषी मायिः ॥ ० ॥ म १ व सू० ३९ । म० २ ॥ ईश्वर उपदेश करता है कि हे राजपुरुषो ' ( ः ) तुम्हारे ( आयुधा ) आ- 1 नयiद अष और तथ्नी अथत तोप भुगुण्डी अधोत वन्दू धनुष बाण तलवार आदि शस् शत्रु के ( परदे ) पराजय करने । उत प्रतिष्कर्भ ) और रोकने के ' लिये ( विठ , प्रशंसित और ( स्थिरा ) दृढ़ ( सन्तु ) हों ( युष्म कम ) और लु - 1 हरी ( वविषी ) सेना ( पक्षीयस ) प्रशंसनीय ( अस्तु ) होने कि जिस से तुम