पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१५९

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घष्ठसमुल्लासः॥ त्र्यवरा परिषज्ज्ञेया धर्मसंशयनिर्णये ॥ ४॥ एकोपि वेदविद्धर्म यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः । स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतैः ॥ ५ ॥ अवतानाममन्त्राणां जातिमानोपजीविनाम् । सहस्रशः समेतानां परिषत्त्वं न विद्यते ॥६॥ यं वदन्ति तमोभूता मूर्खा धर्ममतद्विदः । तत्पापं शतधा भूत्वा तद्वक्तननुगच्छति ॥ ७ ॥ मनु० १२ ॥ १०० । ११०-११५॥ सव सेना और सेनापतियों के ऊपर राज्याधिकार, दंड देने की व्यवस्था के । सव कार्यों का आधिपत्य और सब के ऊपर वर्तमान सर्वाधीश राज्याधिकार इन चारों अधिकारों में सपूर्ण वेद शास्त्रों में प्रवीण पूर्ण विद्यावाले धर्मात्मा जितेन्द्रिय सुशील जनों को स्थापित करना चाहिये अर्थात् मुख्य सेनापति, मुख्य राज्याधि- कारी, मुख्य न्यायाधीश, प्रधान और राजा ये चार सब विद्याओं मे पूर्ण विद्वान् होने चाहियें ॥ १ ॥ न्यून से न्यून दश विद्वानों अथवा बहुत न्यून हों तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे उस धर्म अर्थात् व्यवस्था का उल्लंघन कोई भी न करे ॥ २ ॥ इस सभा मे चारो वेद, न्यायशास्त्र, निरुक्त, धर्मशाल आदि के वेत्ता विद्वान् सभासद् हो परन्तु वे ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ हों तब वह सभा हो कि जिसमें दश विद्वानों से न्यून न होने चाहिये ।। ३ ॥ और जिस सभा में ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद के जाननेवाले तीन सभासद् होके व्यवस्था करें उस सभा की कीहुई व्यवस्था को भी कोई उल्लंघन न करे ॥ ४ ॥ यदि एक अकेला राब वेदों का जाननेहारा द्विजों में उत्तम संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे वही श्रेष्ठ धर्म है क्योंकि अज्ञानियों के सहस्रों लाखों क्रोड़ों मिल के जो कुछ व्यवस्था करें उसको कभी न मानना चाहिये ॥ ५ ॥ जो ब्रह्मचर्य सत्यभाषणादि बत वेदविद्या वा वि- चार से राहत जन्ममात्र से शूद्रवत् वर्तमान हैं उन सहनो मनुष्यों के मिलने से भी सभा नहीं कहाती ॥ ६ ॥ जो विधायुक्त मूर्ख वेदों के न जाननेवाले मनुष्य जिस धर्म को कहें उसको कभी न मानना चाहिये क्योकि जो मूखों के कहे हुए। धर्म के अनुसार चलते है उनके पीछे सिकहो प्रकार के पाप लग जाते हैं ॥ ७ ॥