पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१६

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ले आवे तो उसका स्वामी उस पर क्रुद्ध होकर कहेगा कि तू निर्बुद्धि पुरुष है, गमनसमय में लवण और भोजनकाल में घोड़े के लाने का क्या प्रयोजन था ? तू प्रकरणवित् नहीं है नहीं तो जिस समय में जिसको लाना चाहिये था उसी को लाता जो तुझ को प्रकरण का विचार करना आवश्यक था वह तूने नहीं किया इससे तू मूर्ख है मेरे पास से चला जा | इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ जिसका ग्रहण करना उचित हो वहां उसी अर्थ का ग्रहण करना चाहिये तो ऐसा ही हम और आप सब लोगों को मानना और करना भी चाहिये ॥

॥ अथ मन्त्रार्थः ॥

ओ३म् खम्ब्रह्म ॥ १ ॥ यजुः॰ अ॰ ४०। मं॰ १७ ॥

देखिये वेदों में ऐसे २ प्रकरणों में ‘ओम्’ आदि परमेश्वर के नाम आते हैं ।

ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत ॥ २ ॥

छान्दोग्य उपनिषद् मं॰ १ ॥

ओमित्येनदक्षरमिदꣳसर्वं तस्योपव्याख्यानम् ॥ ३ ॥

माण्डूक्य० मं॰ १ ॥

सर्वे वेद यत्पदमामनन्ति तपाᳬंसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥ ४ ॥ कठोपनिषत् । वल्ली २ । मं॰ १५ ॥

प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।

रुक्माभं स्वप्नधीगम्य विद्यात्तं पुरुषं परम् ॥ ५ ॥

एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम् ।

इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतत्म् ॥ ६ ॥ मनु॰ अ॰ १२ । श्लो॰ १२२ । १२३ ॥

स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट् ।