पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१६७

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मुला: ११ १५५ रथाश्वं हस्तिः छः धन धान्य पशून् स्त्रियः। सर्वेद्रव्याणि कुष्यं च यो यज्जयति तस्य तत् ॥ ११ ॥ । राइच दशुरुद्धारमित्पषा वैदिकी श्रुतिः । राझा च सर्वयोधेयो दातव्यसपृथग्जित ॥१२ ॥ मनु० ७ ॥ ८०-८२ । ८७ । ८९ । ९१-९७ ॥ वार्षिक कर आIपुरुषों के द्वारा ग्रहण करे और जो सभापतिरूप राजा

आदि प्रधान पुरुष हैं वे सब सभा वेदानुकूल होकर प्रज्ञा के साथ पिता के समान !

वर्ती ॥ १ ॥ उस राज्य ार्य में विविध कार के अध्यक्षों को सभा नियत करे इनका यही काम है जितने २ जिल २ काम में रा पुरुष हों वे नियमानुसार वर्ली । कर यथावत् क.म करते हैं या नहीं जो यथाव करें तो उनका सरकार और जो विरुद्ध करें तो उनको यथात्रत् दण्ड किया करे ॥ २ ॥ सदा जो राजाओं का वेद | प्राररूप अक्षय कोष है इसके प्रचार के लिये कोई यथावत् ब्रह्म चर्थ से बेदादि | - 1 शाखा को पढ़कर गुरुकुल से छअब उसका सत्कार रजा आर सभा यथावत् कर तथा उनका भी जिनके पढ़ाये हुए विद्वान् होवं ॥ ३ ॥ इस बात के करने से राज्य ? में विथा की उन्नति होकर अत्यन्त उन्नति होती है जब कभी प्रजा का पालन करने वाले राजा को कोई अपने से छोटा, तुल्य और उतम संग्राम में आlह्वान करे तो मैं नियों के धर्म का स्मरण करके संग्राम में जाने से कभी नित्त न हो अर्थात् बडी चतुराई के साथ उनसे युद्ध करे जिससे अपना ही विजय हो ॥ ४ ॥ जो संग्राम में एक दूसरे को हनन करने की इच्छा करते हुए राजा लोग जितना अपना सा. मर्थ हो विना डर पीठ न दिखा युद्ध करते हैं वे सुख को प्राप्त होते हैं इससे ' विमुख कभी न हो, किन्तु कभी २ शत्रुको जीतने के लिये उनके सामने से छिप जाना उचित है क्योंकि जिस प्रकार से शत्रु को जीत स वैसे काम करें जैसा सिंह क्रोध से सामने आकर शछा रिम में शीघ्र भस्म हो ज। ता है वैसे मूर्खता से नष्ट भ्रष्ट न हजारों ॥ ५ 1 युद्ध समय में न इध: उधर खड, स सक्सक, न हाथ जोड़े हुए, न जिसके शिर के बाल खुलगये हो, न बैठे हुए, न १८ में तेरे शरण हूं । ऐसे का ॥ द : न सोते हुए, में मूछों को प्राप्त हुए, न नद हुए, न आाध रहित, न युद्ध करते हुए को देखने। स्लों, न शत्रु के थी। | : t ७ ।। न आयुध के ।