पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१७०

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१५८ सत्याग्रताः ? एक हैं। 1 - ऐसे ' में शे से ग्रामदशशय दशश वितiशन ॥ १३ ॥ चिश्तीशस्तु तत्सव शतेय निवेदयेत। शैलेष ग्रामश्रतेशस्तु सहस्रपतये स्वयम् ॥ १४ ॥ तेषां ग्राम्याण कार्याणि पृथकाणि चैव हि । रलोsन्यः सचिवः स्निग्धस्तानि पश्छेदतन्द्रितः ॥ १५ ॥ ।

नगर नगर व के कुर्सी सर्वार्थचिन्तक।

उच्चैस्थान घोररूप नक्षत्राणमित्र प्रह ॥ १६ ॥ स तानारामरसवानव सदा स्वयम् । तेष वृत्त् परिण येसयग्राष्ट्रधु तचरें: I १७ ॥ रक्षा हे राधडता: परस्वादान: । ड्रया भवन्ति प्रायण तेयो रक्षेदिमाः प्रज्ञाः ॥ १८ ॥ ये कार्पियोsयमेव य्लीयुः पापचेतस’। तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुप्रवासन ॥ १४ ॥ मनु० ७ t &ड १०११०४-१०७1 ११०-१९७४ १२०१२४ ॥ | राजा और राजसभा अ लव्ध की प्राप्ति की इच्छा, प्राप्त की प्रयत्न से रक्षा' रक्षित को बढ़ावे और बढ़े हुए धन को वेदाविद्या, धर्म का प्रचार, विद्यार्थी, वेदमा पदेशक तथा असमर्थ अनाथों के पालन में लगावे 1 १ 11 इस प्रकार चार के पुरु पार्टी के प्रयो जन को जान आलस्य छोड़कर इसका भलीभiवि नित्य अनुष्ठान कर दुण्ड से आश्राप्त की की प्राप्त , रक्षित की वृद्धि प्राप्ति इच्छा, नित्य देखने से की रक्षा अर्थात् ब्याजादि से बढ़ा और बढ़े हुए धनको पूवत मार्ग में नित्य व्यय करे ॥ २ ! कदापि किसी के साथ छल से न बढ़े किन्तु निष्कट होकर सबसे रखे र बतब नित्यप्रति अपनी रक्षा करके शत्रु के किये हुए छल को जान के निवृत्त करे ॥ है | कोई शत्रु अपने छिद्र निर्बलता को जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों अत् न को