पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१७४

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१६२ सत्य प्रकाश: 7 छेदन करता है वह अपने को और उनको पीड़ा ही देता है । ३ ॥ जो महीपति कार्य को देख के तीक्ष्ण और कोमल भी होवे वह दुष्टों पर तीक्ष्ण और श्रेष्ठ पर कोमत रहने से राजा अतिमाननीय होता है ॥ ४ ॥ इस प्रकार सब राज्य का प्रबन्ध करके ? सदा इसमें युक्त और प्रसादरहित होकर अपनी प्रजा क। पालन निरन्तर करे।५॥ जिस प्यसहित देखते हुए राजा के राज्य में से डाकू लोग रोती विलाप करती प्रज्ञा के पदार्थ और प्राणों को ः ते रहते हैं वह जान धृत्य आमस्यसहित मृतक है जीता नईं और मदुःख का पानेवाला है ॥ ६ ॥ इसलिये राजाओं का जापाठन कर: ना ही परमधर्म है और जो मनुस्मृति के सप्तमाध्याय में कर लेना लिखा है और जैसा सभा नियत्त करे उसका भोका राजा धर्म से युक्त होकर सुख पाता है इससे विपरीत टु ख को प्राप्त होता है ॥ ७ ॥ उस्थाय पश्चिम यामे कृतचः समाहितः ।

हुतग्निह्रह्मणाँचार्य प्रविशंस शुभ सभाप्र ॥ १ ॥ ।

तत्र स्थिताः प्रजाः सवों प्रतिनन्य विसर्जयेत् । विसृज्य च प्रजाः सव मन्नीसह मन्त्रि भिः ॥ २ ॥ गिरिपृष्ठं समारुढ प्रासादे व रहोगतः । श्ररण्य निःशलाके या मन्त्रयेदविभवतः ॥ ३ । यस्य मन्नू न जान्त समागम्य रंजना: । स कृत्नी टथिवीं भु केोशहीनोsपि पार्थिव: ॥ ४ ॥ | मनु० ७ ॥ १४५-१४८ ॥ जब पिछली प्रहर रात्रि रहे तब ठ शौच और सावधान होकर परमेश्वर का ध्यान अग्निहोन धार्मिक विद्वानों का सरकार और भोजन कर के भीतर सभा में प्रवेश कर | है॥ १ ॥ वहा खडा रहकर जो प्रजाजन उपस्थित हों उनको मान्य दे और उनका छोड़कर मुख्य मन्त्री के साथ राजव्यवस्था का विचार करे ॥ २ I पश्चात् उसक साथ थमने को चला जाय पर्वत की शिखर अथवा एकान्त घर वा जंगल जिसमें एक शलाका भी न हो वैसे एकान्त स्थान में बैठकर विरुद्ध भावना को छोढ़ मंत्री के साथ प्र