पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१७६

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- - - - - - - -कि ५ ६ है बदार्थप्रकाश! ॥ ‘यदा प्रढष्ट मन्षत सवस्तु प्रखतीन । अयुच्छित तथारमा तदा कुवैत विग्रह ॥ १० ॥ यदा मन्पत भावेन हृष्ट पुष्ट बल स्वकर्मा । परस्थ विपरीत च तदा यायाद्णुि प्रांत ॥ ११ ॥ यदा तु स्यापरिक्षीणो वाहनेन बोन च। तदातीत प्रयत्नेन शन सांत्वयन्नरी fl १२ ॥ मन्ता यद राजा सर्वथा बलवत्तरम् । तद द्विधा बर्ल कृत्वा साध५स्कार्टूमारमन’ ॥ १३ ॥ यदा परबलानां तु गमनीयतम भवेत्। तदा लु संध्रपत् क्षिणे धार्मिक बलिन नृपने ॥ १४ ॥ नेग्रह अकृतोना च कुयद्योरिबतस्य व । ' उपसेवेत में नित्यं सर्वेयरनैगृहै यथा ॥ १५ ॥ यदि तत्रापि संपयेद्दोष संप्रयकारितम्। संयुक्मेव तत्रापि निर्धशंक’ समाचत् ॥ १६ ॥ स०७ में १६१-१७६ गे सब राजादि को यह बात लक्ष में रखने योग्य है जो ( आसन ) रजपुर स्थिरता (यान ) शत्र से लडने के लिये जाना ( संधि ) उनसे मेल कर लेना ( विं वी | मह) दुष्ट शत्रुओं से लडई करना ( ) दो प्रकार की सेना करके स्ववि जय कर | ले ना और ( सश्रय ) निर्बल ता में दूसरे प्रबल राजा का आश्रय लेना ये छः प्रकार के कर्म यथायोग्य क ार्यों को विचार कर उसमें युक्क करना चाहिये ॥ १ ॥ राजा जो सधि, विग्रह,यनआासन, डंधीभाव और सश्रय दो २ प्रकार के होते है उन ( को यथावत् जाने » २ ॥ ( सवि ) श से मेल अथवा उससे विपरीतता कर परन्तु वर्तमान और भविष्यन् में करने के काम बरबर करता जाय यह दो प्रकार