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सत्यार्थप्रकाशः॥

५ से जाय उसका सार प्रधान पुरुषों के साथ मिलकर रदि उस पदार्थों के द्वान ! से करे और ऐसा न करे कि जिससे उसका योगक्षेम भी न हो जो उसको बन्दी गृह करे तो भी उसका सकार यथायोग्य रक्खे जिससे व हारने के शोक से रहित होकर आनन्द में रहे है १३ : क्योंकि संसार में दूसरे का पदार्थ प्रढ ण करना अप्रीति और देना प्रीति का कारण है और विशेष करके समय पर उचित क्रिया करना और उस पराजित के सनोवाच्छिठ पदार्थों का देना बहुत उत्तम है और कभी असको चिड़ावे नहीं न हँसी और न ठट्ठा करे, न उसके सामने हमने तु को पराजित किया है ऐसा भी कहे, किन्तु आप हमारे भाई हैं इत्यादि मान्य प्रतिष्ठा सट्ट करे : १४ !॥

हिरण्यभूमिसंप्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते ।

से यथा मिर्जा भुवं लवा कृशमप्यायतिक्षम ॥ १ ॥ धमझ चव कृतज्ञ व तुष्टमेव व ॥ अनुरक्क स्थिरारम्भ लघुमिर्ज प्रशस्यते ॥ २ ॥ प्रज्ञ उलन शूर में दक्ष दातारव च! कृत श्रुतिमन्च कष्टमाहुरतेिं बुधः ॥ ३ है। ग्र।व्यंता पुरुषज्ञानें शौर्य करुणदिता । स्थललक्ष्यं च सतनमुदीनगुणोदयः ॥ ४ ॥ म० ७ से २००८--२११ ॥ मित्र का लक्ष्ण यह है कि राजा बर्ण और भूमि की प्राप्ति से वैसा न

बहता कि जैसे निश्चल प्रेम के भविष्यन् की बातों को सोचने और कार्य सिद्ध करने

i वाले समर्थ मित्र अथवा दुर्बल मित्र को भी प्राप्त होके बढ़ता है ॥ १ ॥ घमें !का ज्ञान ने और कृता अन् किये हुए उपकार को सदा माननेवाले प्रसन्न स्वभाव अनुरागी स्थितुरन्भी लघु छोटे भी मित्र को प्राप्त होकर प्रशंसित होता है ॥ 11 दt ईम बात ो दृढ़ रहे कि कभी बुद्धिमान्, कुलीन, शुर, वीर, चतुरदाता, किये धैर्यवान् को शत्रु क्योंकि को हुए को जानने और पुरुष न चनावे जो ऐसे शप गt a KRaबंगा से ३ उदासीन का लक्षण-जिसमें दन. 11 प्रशंसित गुण 1