पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१८६

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१७४ दत्याग्रफ: ॥ कठोर दण्ड देना । १२ कठोर वाणी का बोलना । १३ चोरी का मारना । ५४ किसी काम को बलात्कार से करना है १५ किसी की भी व पुरुप का व्याभिचार होना 1 ॥ ४ Z ॥ १६ बी और पुरुष के धर्म में व्यतिक्रम होना। १७ विभाग अथन दाय- ! भाग में वाद उठना। १८ झूत अर्थात् जड़पदार्थ और स माह्य अर्थात् चेतन को बाव म धर के जुआ खेलना । ये अठारहू प्रकार के परस्पर विरुद्ध व्यवहार के स्थान 1 हैं : ५ ॥ इन व्यवहारों में बहुतले विवाद करनेवाले पुरुषों के न्याय को सनातन- धर्म के आश्रय करके किया करे अर्थात् किसी का पक्षपात कभी न करे ॥ ६ ॥ जिस सभा अधर्म से घायल होकर धर्म होता है जो उसका अर्थात् में उपस्थित शत्य वीरवत् धर्म के कल को निकालना और अधर्म का छेदन नहीं करते अर्थात् ध का मान अधर्मी को दण्ड नहीं मिलता उस सभा में जितने सभासद् हैं वे सब घायल के समान समझे जाते हैं। ७। धार्मिक मनुष्य को योग्य है कि सभा में कभी प्रवे श न करे और जो प्रवेश किया हो तो समय ही बोले जो कोई सभा से अन्याय होते ! 1 हुए को देखकर मौन रहे अथवा सत्य न्याय के विरुद्ध बोले बहू महापापी होता है । ॥ ८ ॥ जिस सभा में आधे से , असत्य से सत्य सव सभासदों को देखते हुए ! मारा जाता है उस सभा में सब मृतक के समान हैं जातो उनमें कोई भी नहीं ! जीता ॥ ९ 1 मरा हुआ धर्म मारनेवाले का नाश और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है इसलिये धर्म का हनन इस डर से कि मारा हुआ। कभी न करना ध कभी हमको न मारडाले ॥ १० ॥ जो सब ऐश्वयों के देने और सुखों की वर्षा करनेवाला धर्म है उसका लोप करता है उसको विद्वान् लोग झूषल अर्थात् शुद्ध और नीच जानते हैं इसलिये किसी मनुष्य को धर्म का लोप करना उचित नहीं ह११। इस संसार में एक धर्म ही मुद् है जो मृत्यु के पश्चात् भी साथ चलता है और सब पदार्थ व संगी शरीर के नाश के साथ ही प्राप्त हैं नाश को होते अर्थात् सब संग छूट जाता है ॥ १२ ॥ परन्तु धर्म का संग कभी नहीं छूटता जब रज भा में पक्षपात से अन्याय किया जाता है वहां अधर्म के चार विभाग होजाते हैं उन से एक अधर्म के कत्त, दूसरा साक्षी, तीसरा सभासदो और चौथा पाद अध सभा के सभापति राजा को प्राप्त होता है ॥ १३ 11 जिस सभा में निन्दा के योग्य की निन्दा, स्तुति के योग्य की स्तुति, दण्ड के योग्य को दण्ड और सान्य के योग्य का मान्य होता है वहां राजा और सब सभासद् पाप से हित और पवित्र हो जाते हैं पाप के कही को पाप प्राप्त होता है ।॥ १४ ॥ अब साक्षी कैसे करने चाहियें. ।