पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१९

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“ओ३म्” यह तो केवल परमात्मा ही का नाम है और अग्नि आदि नामों से परमेश्वर के ग्रहण में प्रकरण और विशेषण नियमकारक हैं इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ २ स्तुति, प्रार्थना, उपासना, सर्वज्ञ, व्यापक, शुद्ध, सनातन और सृष्टिकर्त्ता आदि विशेषण लिखे हैं वहीं २ इन नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है। और जहां २ ऐसे प्रकरण हैं कि-

ततो॑ वि॒राड॑जायत वि॒राजो॒ अधि॒ पूरुषः॑ ।

श्रोत्रा॑द्वा॒युश्च॑ प्रा॒णश्च॒ मुखा॑द॒ग्निर॑जायत ॥

तेन॑ दे॒वा अय॑जन्त ।

प॒श्चाद्भूमि॒मथो॑ पुरः ॥ यजुः अ० ३१ ॥

तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः । वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी । पृथिव्या ओषधयः । ओषधिभ्योऽन्नम् । अन्नादे्रतः । रेतसः पुरुषः । स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः ॥

यह तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्द वल्ली प्रथमानुवाचक का वचन है। ऐसे प्रमाणों में विराट्, पुरुष, देव, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि आदि नाम लौकिक पदार्थों के होते हैं, क्योंकि जहां २ उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, अल्पज्ञ, जड़ दृश्य आदि विशेषण भी लिखे हों, वहाँ-वहाँ परमेश्वर का ग्रहण नहीं होता। वह उत्पत्ति आदि व्यवहारों से पृथक् हैं और उपरोक्त मन्त्रों में उत्पत्ति आदि व्यवहार हैं, इसी से यहाँ विराट् आदि नामों से परमात्मा का ग्रहण न हो के संसारी पदार्थों का ग्रहण होता है । किन्तु जहाँ-जहाँ सर्वज्ञादि विशेषण हों, वहां २ परमात्मा और जहां २ इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और अल्पज्ञादि विशेषण हों, वहां २ जीव का ग्रहण होता है, ऐसा सर्वत्र समझना चाहिये, क्योंकि परमेश्वर का जन्म-मरण कभी नहीं होता, इससे विराट् आदि नाम और जन्मादि विशेषणों से जगत् के जड़ और जीवादि पदार्थों का ग्रहण करना उचित है, परमेश्वर का नहीं । अब जिस प्रकार विराट् आदि नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है, वह प्रकार नीचे लिखे प्रमाणे जानो। अथ ओंकारार्थः १– (वि) उपसर्ग पूवर्क (राजृ दीप्तौ) इस धातु से क्विप् प्रत्यय करने से “विराट्” शब्द सिद्ध होता है। ”यो विविधं नाम चराऽचरं जगद्रा-