पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१९२

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प्रदM: t संहसे वर्तमानन्तु यो सर्षयाति पार्थिवः ! स विनाएं नजदयाशु विद्देर्ष चाधिगच्छति ॥ ८ ॥ न मिन्त्रकारणद्राज iवपुल धनागमात् । समुसृजे साहसिकासर्वभूतभयावहान् ॥ & ॥ गुरु व बालवृद्धो वा ब्राह्मण वा बहुचतम् । आतताथिनमायान्त हन्यादेषाविचारय ॥ १० ॥ नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन। प्रकाशं वाSप्रा ा मन्युस्तमन्युनुच्छते t ११ ! ॥ यस्य स्तेन: पुरे नास्ति नान्यत्रगो न दुष्वाकू । न साहसिकदण्डो स राजा शुक्रलोकभाष ॥ १२ ॥ । मनु० 5 ३३४-३६८ ३७४-३४७ से ३५० से ३५१ । ३६ !! चोर जिस प्रकार जिज व १ अन से मनुष्यों में विरुद्ध चेष्ठा करता है डख २ अ1 ो सत्र मनुषों की शिक्षा के लिये राजा हरण अत् छेदन करदे से १ ॥ चाहे पिता, आचार्य, भि, बी, पुत्र और पुरोहित क्यों न हो जो खधर्म में स्थित 1 नहीं रहना यह रजा अब नहीं होता अर्थात् जब राजा न्यायासन पर बैठ न्याय करे त५ किसी का पक्षपात न करे किन्तु यथोचित दण्ड देखे ॥ २ ॥ जिस अपराध में सोयारए नय पर एक पैसा दुण्ड हो उसी अपराध में जा को सन पैसा दृण्ड होये अर्थम् 1धारण मनुष्य से राजा को सहन गुणा दण्ड होना चाहिये न्त्री अन् 1ा के वत को आठक गुण उठ से न्यून को स्सrसी गुणा और उनसे भी न्यून को छ: सौ गुणा दमी प्रकार उत्तम २ अर्थात जो एक छोटे ठे। टुत्र अन चपरमी है उसको आटलुगु दृढ से कम स ना पtiई ६३ कई से में, प्रो से राज को अधिक दुण्ड न दें। ढ़ दर्द (पुरुष प्रौ पुरुt ा से लेकर में इसे हिंदू अविक और बकरी थोड़े ७ ई है , ई शुरू में मttat ६ ३१ से ३१ : से लेफ्टर डेट से छोटे त्य पुर्नन्त राज पुरों 4 , २