पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१८४ सत्यप्रकाशः ॥ सैकड़ों विद्वानों को जीत सकता है और जो केवल शरीर ही का बल बढ़ाया जाय आात्मा का नहीं तो भी राज्यपालन की उत्तम व्यवस्था विना विया के कभी नहीं हो सकती विना व्यवस्था के सब आपस में ही फूट टूट विरोध लड़ाई झगड़ा क रके नष्ट भ्रष्ट होजाये इसलिये सर्वदा शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाते रहना | चाहिये जैसा बल और बुद्धि का नाश व्यवहार व्यभिचार और अति विषया ' सक्कि है वैमा और कोई नह" है विशेषत: क्षत्रियों को दृढ़ांग और बल युद्ध होना } चाहिये क्योंकि जब वे ही विषयास होंगे तो राज्यधर्म ही नष्ट होजायाग और ! इस पर भी ध्यान रखना चाहये कि ‘‘यथा राजा तथा प्रजा” जैसा राजा होता ! है वैसी ही उसकी प्रता होती है इसलिये राजा और राजपुरुषों को अति उचित है कि के कभी दुष्टाचार न करें किन्तु सस दिन धर्म न्याय से वर्तकर सब के सुधार । का ष्टान्य बन 11 यह संक्षेप से राजधर्म का वर्णन यहां किया है विशेष वेद , मनुस्मृति के सप्तमअष्ठम, नवम अध्याय में और शुक्रनीति तथा और , विदुरप्रजागर महाभा रत शान्तिपर्व के राजधर्म और आपर्म आदि पुस्तकों में देखकर पूर्ण राजनीति को धार ण करके माण्डालिक अथवा सार्वभौम चक्रवत्त राज्य करे और यह सम } मैं कि वयं प्रजापते: प्रजा आभूम 3' ( यह यजुर्वेद का वचन है ) इस प्रजापति ! ' अर्थात् परमेश्वर की प्रजा और पर मात्मा हमारा राजा हम उसके किंकर नृत्यवत् हैं वह कृपा करके अपनी दृष्टि में हम को राज्याधिकारी करे और हमारे हाथ अपने सत्य न्याय की प्रवृचि करावे । अब आगे ईश्वर और वेदविषय में लिखा 1 जायगा ॥ इति श्रीमदयानन्दसरस्वतीस्वामिलते सत्यार्थ प्रकाशे सुभाषाविभूषिते राजधमविषये षष्ठ: समुल्लासः सम्पूर्णः ॥ ६ ॥