पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२०४

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सत्यप्रकाश: 17 १९२ हे अग्ने ! अर्थात् प्रकाशस्वरूप परमेश्वर आप कृपा से जिस बुद्धि की उपा सना विद्वान् ज्ञान और यांग लोग करते हैं उस बुद्धि से युक्त बुद्धिमान् हमको 1 इसी वर्तमान समय म आप कifजय it १ } अप के शस्वरूप वे कृपांकर मु म | भी प्रकाश स्थापन कीजिये । आप अनन्स पराक्रमयुक्त हैं इसलिये मुझ में भी कृपा कटाक्ष में पूर्ण पराक्रम धरिय । आप अनन्त बलयुक्त हैं इसलिये मुझ में भी बल धारण कीजिये । आप अनन्त सामथंयुक्त हैं इसालिये मुझको भी पूर्ण सामथ्य दीजिये । आप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं मुझको भी वैसा ही कीजिये। आाप निन्दा, स्तुति और स्ख आपरधियों का सहन करनेवाले हैं कृप से मुझ हो वैमा वी कीजिये 17 २ ॥ हे दयानिध ! आप की कृपा से मेरा सन जागते में दूर ! जाता, दिव्य गुणयुक्त रहता है और वही सोते हुए मेरा मन सुषुप्ति को प्राप्त होता । बा स्वप्न में दूर २ जाने क समान व्यवहार करता सब प्रकाशक का प्रकाशक एक वह मेरा मन शित्रमढल्प अर्थात् आपने और दूसरे प्राणियों के अर्थ कल्याण से का संकल्प करनेहरा होवे किसी की हानि करने की इच्छायुक्त कभी न होने से ॥ ३। हे सॉन्तर्यामी ! जि ससे कर्म करनेहारे धैर्ययुक्त विद्वान् लोग यज्ञ और युद्धादि में कर्म करते हैं जो अपूर्व सामथ्र्धयुक्त पूजनीय और प्रजा के भीतर रहनेवाला है वह मेरा मन धर्म करने की इच्छायुक्त होकर अधर्म को सर्वथा छोड़ देवे 11 & I ज। उकृष्ट ज्ञान और दूसरे को चितानेहारा निश्चय त्मकत्ति है और जो प्रमुजाओं में ! भीतर प्रकाशयुक्त और नाशरहित है जिसके बिना कोई कुछ भी कर्म नहीं कर ! सकता वह मेरा मन शुद्ध गुणों की इच्छा कर के टुष्ट गुणों से पृथ ग्ढे 11 ! मैं ! जगदीश्वर ! fसमे सब योगी लोग इन सब भूत, भविष्य न, वर्तमान व्यवहारों को } जानते जो नाश रहित जीवात्मा को परमात्मा के साथ मिल के समय कार नि 1 क लज्ञ करता है जिसमें ज्ञान क्रिया है, ज्ञानेन्द्रिय बुद्धि पांच और आत्मायुक रहता है उस योरूप यज्ञ को जि म मे बढ़त हैं वह मेरा मन योग विज्ञानचुक होकर अविद्यादि है t ६ ' हे परम विद्वन् परमेश्वर आप की का छो मे पृथ ' से मेरे मन जे ने रथ क रहते में मध्य युग में लगे हैं , आरा वैसे ऋसबंदयजुर्वेद, मामवेद और जिसमें अथर्घावेद भी प्रतिष्ठित होता है और जिसमें सर्वर ले यापक चिन्तु है वह मेरा मन अविद्या का प्रजा का साक्षी चेत विदित होता अभाव रहै ईश्वर मेरा मन रस्सी कर विद्यात्रिय सदा ॥ ७ 11 हे सनियता ! जो से वो समान अथवा के के घोडों के नियन्ता सारथी तुल्य मनुष्यों को अत्यन्त ' इबर उवर डुलाता है जो हृदय में प्रतिष्ठित गतिमगे और वेगवाला है व' अत्यन्त !