पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२०५

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सप्तमसला: । १९३ मेरा मन सब इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक के धर्मपथ में सट्टा चलाया करे ऐसी कृ i मुझ पर कीजिये : ८ ॥ अग्ने नयं सुपथ येऽअस्मत विश्वनि देव वयुनने विद्वान् । युयोध्यमऊर्जुहुराणमेनो भूघिष्ठां ने नम उऊिँ विधेम | यजु० : अ० ४० । म० १६ : ई सुख के दता स्वप्रकशस्वरूप सवक जाननहारें परमात्मद ! आप हम श्रेष्ठ मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञानों को प्राप्त कराइये और जो हम में कुटिल पापाचरणरूप मार्ग है उससे पृथ कीजिये इसलिये हम लोग नम्रतापूर्वक आपकी बहुवर्स स्ति करवे ३ के आरोप में कi iवन कर । क मा न सहान्तंमुत मा नSअभ ममा न उड़न्तमुत म ) मैं उक्षित । मा नो वधी पितर मोत मत मान’ प्रिया | - : स्तन्त्रो रुद्र रीरिष ‘ ॥ यजुः० ॥ अ० १६ | में• १५ ॥ हे रुद्र ! ( दुष्टों को पाप के दुःखस्वरूप फल को देके रुलानेवाले परमेश्वर ! आप हमारे छोटे बड़े जनरामेमाता, पिता और प्रिय, बन्धुव से तथा शरीरों का हनन ' करने के लिये प्रेरित मत कीजिये ऐसे सार्ग से हम को वलइये जिससे हम आपके दण्डनीय न हों । असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्यो मएमृत गमयेति ॥ शतपथत्रा’ १४ i ३ ' १ ! ३० ॥

। हैपरसगुरु परमार म् 1 आप हमको असत मग से पृथ कर सन्म 1ों में प्राप्त कीजिये अविद्यान्धकार को छुड़ा के विद्यारूप सूर्य को प्राप्त कीये और मृत्यु रोग से पृथक् करके मोक्ष के आनन्दरूप अख़्त को प्राप्त कीजिये यथत जिम २ दम वा से परमेश्वर और अपने को भी पृथक् मान के परमेश्वर की प्राथूना की जाती है ग६ विधि निषेधमुख होने से सगुण निर्गुण प्रार्थना जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वसन करना चाहिये अर्थात् जैसे सचम बुद्धि की दुनि | २५