पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२०६

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[: Hy १९४ ५ के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करे उसके लिये जितना अपने से प्रयत्न हास तना थमा योग्य हैं ऐसी किया करे अर्थीन अपने पुरुषार्थ के उपरान्त ने करनी प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और म परमेश्वर उसका स्वीकार करता है कि जैसे है परमेश्वर ! आप शत्रुओं का मेरे नाश, मुझको सब से बड़ा, मेरे ही प्रतिष्ठा और मर आाधीन सव हो । ज० इत्यादि क्योंiके जब दोनें शत्रु एक दूसरे के नाश्त के लिये प्रार्थना करें तो क्या परमेश्वर दोनों का नाश करदे ? जो कोई कहे कि जिस का प्रेम अधिक उसकी प्रार्थना सफल हो जावे तब हम कह सकते हैं कि जिन का । प्रेम न्यून हो उम के शत्रु का भी न्यून न श होना चाहिये । ऐसी मूर्खता की प्रार्थना करते २ कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा हे परमेश्वर ! आप इम को रोटी बनाकर खिलाइये मेरे काम में झाडू लगाइयेवब धो दीजिये और खेती बाड़ी भी कीजिये इस प्रकार जो परमेश्वर के भरोसे चालसी होकर बैठे रहते वे महामूर्व ! क्योंकि जो पर मेश्वर की पुरुषार्थ करने की आज्ञा है उसो जो कोई तोड़ेगा - ९ । ६ सुख कभी न पाग में स: A r

ि कुन्नेवेह कणि जिजीविघच्छत७ समः ॥

यa t ० ४० 1 म० २ ! पर मेश्वर आज्ञा देता है कि सनुष्य सौ वर्ष पर्यन्त अर्थात् जवतक जीवे वत कर्म करता हुआ जीने की इच्छा करे आठस f कभी न हो । देखो साष्ट के बीच में जितने प्राणी अथवा अप्र णी है वे सत्र अपने २ कर्म और यत्न करत ही रहते है जैसे चिपीलि का आदि सदा यन्न करते विी आ।दि सदा घूमत और श्न आदि बढ़ते घटते 'हते हैं वे से यह न्त सनुष्यों को भी प्रह ण करना योग्य है जैसे पुरुषार्थ करते हुए पुरुप का सहाय दूसरा भी करता है वैसे घमें व पुरु।थ पुरुप का सहाय ईश्वर भी कर तप है जैसे काम करनेवाले पुरुष को भ्रय करते हैं और अन्य आरसी को नहीं, देखने की इच्छा करने और नेत्रवाले का दिखलात हैं अ - वे को न हीं, ईसt ५कार पर मेश्वर भी सव के उपकार करने की प्रार्थना में सहय है इतहें !निका+क कर्म में नहीं, जो । ई गुड मठ ए) कहख। वे इसका गुड शIत बा उम का स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता और जो यन्न करता है उसको शव वा विलम्ब से गुड़ मिल ही जाता है । अब दी। - उपासना :



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