पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२०८

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खत्यार्थप्रकाशः । १९५ के उपासनायोग का दूसरा अफ़ कहता है । इसके आगे छ: अल योंगशा व ऋग्वेदादिभयभूमिका में देख लेबें । जब उपासना करना चाहें तब एकान्त शुद्ध देश में जाकर आम ठग। प्राणtय म कर बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक संन को नाभिप्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, नन, शिखा अथवा पीठ के मध्य हड़ मेंकिसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो जाने से संयमी होवें । जब इन साधनों को करता है तब उसका आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण होजाता है नित्यप्रति ज्ञान विज्ञान 3 बढ़ाकर मुक्ति पच जाता है जो आ ठ प्रहर में एक घड़ीभर भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सद् उन्नति को प्राप्त होजात। है वहां सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी गुण और द्वेष, , रस, गन्ध, स्पद्मदि गुणों से पृथ सान अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित हो जाना निर्गुणोपा सना कहती है इसका फल जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्व के समीप प्राप्त होने के सब दोष दुःख छूटकर परमेश्वर के गुण कई स्वभाव के सदृश जीवरमा के गुरु ण कर्म स्वभाव पवित्र होजावे हैं इसलिये परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये । इससे इस ठ पृथ गई परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा वह पर्वत के समान दु:ख प्राप्त होने पर भी न घरवेगा और सत्र को सहन कर सकेगा क्या यह छोटी बात १ और जो परमेश्वर की स्तुतेि प्रार्थना और उपासना नहीं करता बहू कृतघ्न और महामूर्स भी होता है क्योकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पढ़ा जीव को सुख के लिये दे रक्खे हैं उसका गुण भूल जाता ईश्वर द को न मान ना कृतज्नता और मूर्खता है । ( मन ) जब परमेश्वर के श्रोत्र नेत्रादि इन्द्रियाँ नहीं हैं फिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता है ? ( उत्तर ): अपाणिपाद जवनो ग्रहीता पश्ययचः स श्वणोत्यकए। स वेत्ति बेचें न च तस्यारित वेत्ता तमाहुरग्यूं पुरुष महानतम् । श्वेताश्वतर उपनिषद् अ० ३। द० १७ है॥ परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु अपनी शक्तिरूप हाथ से संघ का रवन ग्रहण करता पग नहीं पर व्यापक होने से सब से अधिक वेगवान्, चतु का गोलक नहीं परन्तु • सवेतदिनाप्यमिका के उपासन विपब में इनका वर्णन हैं। 20 - औ