पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२१

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(दो अवखण्डने) इस धातु से “अदिति” और इससे तद्धित करने से “आदित्य” शब्द सिद्ध होता है “न विद्यते विनाशो यस्य सोऽयमदितिः, अदितिरेव आदित्यः” जिसका विनाश कभी न हो उसी ईश्वर की “आदित्य” संज्ञा है। (ज्ञा अवबोधने) “प्र” पूर्वक इस धातु से “प्रज्ञ” और इससे तद्धित करने से “प्राज्ञ” शब्द सिद्ध होता है। “यः प्रकृष्टतया चराऽचरस्य जगतो व्यवहारं जानाति स प्रज्ञः, प्रज्ञ एव प्राज्ञः” जो निर्भ्रान्त ज्ञानयुक्त सब चराऽचर जगत् के व्यवहार को यथावत् जानता है, इससे ईश्वर का नाम “प्राज्ञ” है। इत्यादि नामार्थ मकार से गृहीत होते हैं। जैसे एक २ मात्रा से तीन २ अर्थ यहाँ व्याख्यात किये हैं वैसे ही अन्य नामार्थ भी ओंकार से जाने जाते हैं। जो (शन्नो मित्रः शं व॰) इस मन्त्र में मित्रदि नाम हैं वे भी परमेश्वर के हैं, क्योंकि स्तुति, प्रार्थना, उपासना श्रेष्ठ ही की कीजाती है। श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो गुण, कर्म्म, स्वभाव और सत्य-सत्य व्यवहारों में सब से अधिक हो। उन सब श्रेष्ठों में भी जो अत्यन्त श्रेष्ठ उस को परमेश्वर कहते हैं। जिसके तुल्य न कोई हुआ, न है और न होगा। जब तुल्य नहीं तो उससे अधिक क्योंकर हो सकता है? जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामर्थ्य और सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण हैं, वैसे अन्य किसी जड़ पदार्थ वा जीव के नहीं हैं। जो पदार्थ सत्य है, उस के गुण, कर्म्म, स्वभाव भी सत्य ही होते हैं। इसलिये सब मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें, उससे भिन्न की कभी न करें क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महादेव नामक पूर्वज महाशय विद्वान्, दैत्य दानवादि निकृष्ट मनुष्य और अन्य साधारण मनुष्यों ने भी परमेश्वर ही में विश्वास करके उसी की स्तुति, प्रार्थना और उपासना की, उससे भिन्न की नहीं की। वैसे हम सब को करना योग्य है। इस का विशेष विचार मुक्ति और उपासना के विषय में किया जायगा॥ (प्रश्न) मित्रदि नामों से सखा और इन्द्रादि देवों के प्रसिद्ध व्यवहार देखने से उन्हीं का ग्रहण करना चाहिए ? (उत्तर) यहाँ उन का ग्रहण करना योग्य नहीं, क्योंकि जो मनुष्य किसी का मित्र है, वही अन्य का शत्रु और किसी से उदासीन भी देखने में आता है। इससे मुख्यार्थ में सखा आदि का ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु जैसा परमेश्वर सब जगत् का निश्चित मित्र, न किसी का शत्रु और न किसी से उदासीन है, इस से भिन्न कोई भी जीव इस प्रकार का कभी नहीं हो सकता। इसलिये परमात्मा ही का ग्रहण यहाँ होता है। हाँ, गौण अर्थ में मित्रदि