पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२१०

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१९८ कत्याधुंध्रकाश: ॥ • ईश्वरसिद्धः ॥ १ ॥ स० अ० १.० १९ ॥ . प्रमाणाभावान्न तसिद्धिः ॥ २ ॥ सां॰ अ० ५ । सू० १० ॥ सम्बन्धाभवान्नानुमानप्र ॥ ३ ॥ सां०अ०५। सू० ११ ॥ प्रख्य से घट सकते ईश्वर की सिद्धि नहीं होती ॥ १ ॥ क्योंकि जब उसकी विद्धि में प्रत्यक्ष ही नहीं तो अनुम नादि प्रमाण नहीं हो सकता ॥ २1 और व्याप्ति सम्बन्ध न होने से अनुमान भी नहीं हो सकता पुन: प्रत्यक्षानुमान के न होने से शब्द प्रमाण आदि भी नहीं घट सकते इम कार ण ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती ॥ ३। (उत्तर) यहां ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है और न ईश्वर जगत् का उपादान कारण है और पुरुष से विलक्षण अर्थात् सत्र पूर्ण होने से परमात्मा कानाम पुरुषऔर शरीर में शयन करने से जीव का भी नाम पुरुष हैं के ों िइसी प्रकरण में कहा है: प्रधानशक्ति योगाश्वेत्स—ापत्ति है १ ॥ सत्तमात्राच्चेसर्वेश्व म् ॥ २ ॥ श्रुतिरषि प्रधानकर्यावस्य ॥ ३ ॥ सां० प्र० ५। सू) ८१ & । १२ ॥ । यदि पुरुष को प्रधानशक्ति का योग हो वो पुरुष में सद्भापारीि होजाय अर्थात् जैसे प्रति सूक्ष्म मिलकर कार्यरूप में सहूत हुई है वैसे परमेश्वर भी स्थूल हो जाय इसलिये परमेश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं किन्तु निमित कारण है ॥ १ ॥ जो चेतन से जगन की उत्पत्ति हो तो जैसा परमेश्वर समर्नेश्वर्ययुक है वैसा संसार में भी सर्वेश्वर्य का योग हाना चाहिये सो नहीं है इसलिये परमेश्वर । जगत् का उपहास कारण नहीं किन्तु निर्मित कारण है ॥ २ ॥ क्योंकि उपनिषद भी प्रधान को जगन् का उपदान कारण कहती है ॥ ३-॥ जैसे: अजमेत लोहितशुक्लकृष्णां बट्ठीः प्रजाः सृजमानां स्व रूपाः ॥ श्वेताश्वतर उपनिषद् आ० ४। म० ५ ॥ जो जरति सर, रज, तमोगुणरूप प्रकृति है वही स्वरूपाकार सेबहुत प्रजारूप हो जाती है अर्थात् प्रकृति परिणामिनी होने से अवस्थान्तर हो जाती है और अपरि!मी होने से बद प्रवस्थान्तर होकर दूसरे रूप में कभी नहीं प्राप्त हा ।