पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२६६

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२५ ६ जयाप्र: । मुक्ति में भी यथावत् सहायक रहता है इन सब कोश अवस्था से जीव पृथक् है । क्योंकि यह सब को विदित है कि अवस्था से जीव पृथक् है क्योंकि जब मृत्यु | होता है तब सब कोई कहते हैं कि जीब निकल गया यही जीध सब का प्रेरक, सय १ का धत, साक्षी, कतों, भभक्त कहता है । जो कोई ऐसा कहे कि जब कर्ता | भक्त नहीं त उसकी जान के बड़े अज्ञान, आवंयंों या िजांव के । e y जो ये सब ज ह पदार्थ दें इन का सुख ई ख का टैग व पाप पुण्य कतघ की नई ा सकता ३ां इन सम्बन्ध से जंाव पुण्य का कुत्ता आtrर सुख द खां का भी ता । मैं । जब इन्द्रिया अथा में मन इन्द्रयो अर आास मन सी युक्त हार । प्राणों को प्रेरणा करके अच्छे वा बुरे कर्मों में लगता है तभी घइ बहिर्मुख होजाता है उसीस मय भीतर से अनन्द, उत्साहू, निर्भयता और बुरे कर्मों में भयशर। लज्जा उत्पन्न होती हैं व३ अन्तयो परमात्मा को tशक्षा दें। जो कोई इस रोग ॥ के अनुकूल बत्तत है वहीं मुक्ति जन्य सुखो को प्राप्त होता और जो विपरीत वत्तता हैं वह बन्धजन्य दुःख भागता दें । दूसरा साधन खैराग्य अर्थात् जो बिक रू 9 सत्यालय को जाना ही बस में से सत्याचरण का प्रण आर असत्यचरण का ख्या करना विवेक है जो पृथिो से ले कर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के गुणकर्मस्वभाव से जानकर उस की आज्ञा पालन और उपासना में तत्पर होना, उससे विरुद्ध न चलन, सृष्टि से उतार लेना विवेक कहता है । तत्पश्चात् तीसरा साधन ‘घक सम्पत आत् छ प्रकार के कर्म करना एक शम" जिससे अपने छात्मा नॉर अन्त करण को अधर्माचरण से हटकर धर्माचरण में सदा प्रवृत्त रखना, दूसरा ‘दम' iजससश्रोत्राiदे इन्द्रियों और शरीर को व्यभिचारदि बुरे कर्मों से हटाकर ’ अन्द्रियत्बादि शुभ कर्मों से प्रॉस रखनातीसरा ‘उपरति जिस वे दुट कमें क रनेवाले पुरुषों से सदा दूर रहना,चौथा ‘‘तितिक्षा चाह निन्दा, स्तुति, हुनि, लाभ कितना ही क्यों न हो परन्तु हर्ष शोक को छोड मुक्तिसाधनों में सदा लगे रहना, पांचवां ‘श्रद्धा' जो वेद्यादि सत्य शान और इन बोध से पूर्ण आप्त विद्वान सयोपदेटा महाशयों के वचनों पर विश्वास करना, छठा ‘समाधान चित्त की ए काग्रता ये छ मिल कर एक ‘ साधन' कहता है । चौथा ‘‘मुमुक्षुत्व' - T ' \ थत् जैसे क्षुधा तृषातुर को सिवाय अन्न जल के दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं ल गत से बिना मुक् िके साधन के र मुक्ति के दूसरे में प्रीति न होना । ये चार में