पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२६७

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मला: । २६७ सrधन ‘र चार अनुबन्ध प्रथन साधनों के पश्चात् ये कर्म करने होते हैं । इनमें स ा इन चार साथी स यु त रुप दाता हैं व माल कf tध रf हता हूं । दर ने व ' न झा कई प्राप्ति प मुक्त प्रतिष और वेदादि शास्त्र प्रतिपदक } को ग ाद समय र अन्त्रित करता, तो सारा ६४विष ग्री' स व शहनों का प्रसिदन विपर छा जम भप्ति स्ट' विष प वाले पुरुष का नाम विषयी है, चौथा शहजन २५ 1 म यf ा निfत्त मांग रनद कi Nत कर मुक्तिसुख का ज्ञान य चर अनन्च कहते हैं । ‘"तदनन्तर द बय" जब कोई विद्वान् । एक ‘* ण' उपद करे तो शान्त ४यान द र सु न तो विशे' त्रह्मविद्या के सुनने म अत्यन्त ctन दूरf fiय f प ई म त व आर्य स कम व Tद, नकर इस रt मन' न्ति देश म क न हुए कf ईर क रनरी ( प ात म य ा पुपूछ ना और मु ने स मय भी वक्ता और श्रोत। उचित स म ' में तो पूछना और समाधान } रना, तोसा '‘निदि :हमनम' ज्ञ व मुन ने मार मनन क रने सनिरन्देह हो जाय। तब स माथि होकर उस बात को देख व ससमझन’ कि घइ जैसा सुना था विचार । था वैसा ही है वा नहीं रेयान योग से देख ना, चौथा ‘‘साक्षात्कार' अर्थात् जैसी । पाधि का ऋरूप गुण आfर स्वभाव ६ वस्त। यातिप जान ले द आवरण चटय क. झाता है । मदा तमोगुण अथत क्रोध, मलोनता, आलस्य, प्रमाद आदि र अथन इरखां, प, कमआमि मनविस आदि दोष से अ नग हो के सस्य अन् आत प्रकृति, पवित्रताविद्या, वियार आदि गुर्गों को धारण करे ( मैत्री ) सुखी जनों में मित्रता, ( करुण ) दखो जनों पर दया, ( मुदिता ) पुच यम ओो से हर्षित होना, ( दुष्टात्माों में न । नित्यप्रति न्यून उपेक्षा ) प्रीति न वे करना न्यून से द मुमुक्ष यान अवश्य करे जिसमे भीतर साक्षर घटापर्थत के मन आदि पदार्थ हों। देखो में अपने वेतनस्वरूप हैं इसी से क्षानरूप और सन के साक्षी हैं क्योकि जब मन शान्त, चंचल, आनन्दित व विषाद युक्त होता है दस को यथावत् देखते हैं वैसे ही इन्द्रिया प्राण आदि का ज्ञता पूर्वष्ट्र कत्त और काल का स्मरणक एक में अनेक के वेत्ता धारणकर्षण कर्ता और पृथ हैं जो पदार्थों सबसे पृथ न होने तो स्वतन्त्र क र्ता तों इंन के प्रेरक आधिष्ठाता कभी नहीं हो सकते । वविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशः पच्च क्लेशः ॥ योगशस्त्र पद २ । ३ ॥ ३३ >