पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२७५

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नवममुgrख । २६५

यतु स्यान्मोहसंयुक्तमक्त वेषयात्मक । आश्तक्षमय तमस्तउपधारचंद : ७ ॥ त्रयाणमीप चेष गुणान यः फलोद यः । अरों मयी जघन्य त शवदयाम्यश्रेषतः 1 ८ ॥ वेदाभ्यासस्तपो ज्ञान चमिन्द्रिय निग्रहः । धमेiक्रयात्मiचेन्ता व सात्विक गुणल क्षणम् ॥ ९ ॥ भारम्भरांताधठ्यमसन्कापiग्र: । विषयोपलेवा चाजस्व राजस गुलक्षण ॥ १० ॥ लोभ: स्वरो आंतिः क्रय नास्तिक्घ भन्नाता । याiचेट्णता प्रमादश्च तामस गुणलक्षण ॥ ११ ॥ यकमें कृत्वा कुर्वश्च करिerश्चेव लज्जति । तज्ज्ञेय iवेदुष सवं तमस लक्षण ॥ १२ ॥ येनस्मन्कमणा लॉक ख्याiताच्छiत पुष्कलाप । न च शोचत्य सम्पत्ता तदिक़यं तु राजसम् ॥ १३ ॥ यसवर्णच्छांते ज्ञातु यन्न लज्जत चाचरन् । चेन लुख्यात चामास्य तरसत्रगुल क्षम् से १४ ॥ तमसो लक्षण काम रजसवर्थ उच्यते । सरवस्य लक्षण धर्मः श्रेष्ठयां यथोत्तर ॥ १५ ॥ मनु० अ० १२ ॥ श्० ८ । & I २५-३३ । ३५-३८ ॥ अथोत् मनुष्य इस प्रकार अपने श्रेष्ठ, मध्य और निकट स्वभाव को जानकर उत्तम स्वभाव का ग्रहण मध्य आiर निकृष्ट का त्य ग करें और यह भी निश्य जाने कि यह जीव मम से जिस शुभ या अशुभ कर्म को करता है उस को मन, वाणी से किये को बाणी और शरीर से किये को शरीर अथोत् सुख दु ख को भोगता है ॥ १ ॥ जो नर शरीर से चोरीपरनीरामन, श्रेष्ठों को मरने आदि दुष्ट कर्म क