पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२७९

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समf ॥ २६९


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वे सब वेदों का वेत्ता विश्वसृज सब सृष्क्रिम विद्या को जानकर विविध वि मद मदि यानों को बनाने के धार्मिक सत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशिव सिद्धि को प्राप्त होते हैं | १० ॥ जो इन्द्रिय के वश होकर विषय ,

धर्म को छोड़कर अधर्म करनेहारे अविद्वान् है वे मनुष्यों में नीच जन्म बुरे २ दु

रूप जन्म को पाते हैं ॥ १५ ॥ और इस प्रकार सरव रज तमोगुण युक्त वेग से जिस २ प्रकार कर्म जीव करता है उस २ को उसी २ प्रकार फल प्राप्त होता है जो मुक्त वे गुणातीत आथोत् सब गुणों के में न होते हैं स्वभाव फंसकर महायोगी हो मुक्ति का साधन करे क्योंकि॰-- के

योगश्चित्तत्तिानिरोधः ॥ १ t प० १ । २ ! तदा द्टू: स्वरूपSवस्थानम् ॥ २ ॥ पा० । ३ । ये योराशा पातजल के सूत्र हैं-संतुष्य रजोगुण तमोगुण युक्त कम से मन को रोक शुद्ध सत्वगुणयुक्त कर्मों से भी सन को रोक शुद्ध सत्वगुण्युक्त हो पश्चात् उसका निरोध कर एकाम अथोत् एक परमात्मा और धर्मयुद्ध कर्म इनके अभाग से चित्त को ही रखना निरुद्ध अर्थात् सब ओोर से मन की घृत्ति को रोकना ॥१ ॥ जब सब के से जीवात्मा चित एकाम और निरुद्ध होता है तब द्रष्टा ईश्वर के स्वरूप की स्थिति होती है 1 २ ॥ इत्यादि साधन मुक्ति के लिये करे और अथ त्रिविधदुःखायन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थ , ॥ सांख्य अ० १ । सू० १ ॥ जो आध्यात्मिक अर्थात् शरीर सम्बन्धी पीड़, आधिभौतिक जो दूसरे प्राणियों से दुखित होना, आधिदैविक जो अतिवृष्टि आत्तताप आतिशत मन इन्द्रिों की चचलता से होता है इस त्रिविध दुख को छुड़ाकर मुक्ति पाना अत्यन्त पुरुषार्थ है । इसके आगे आचार अनाचार और भद्देश्याsभक्ष्य का विषय लिखेंगे : ९ ॥ इति श्रीमहानन्दसरस्वतीस्वामिनिर्मिते सस्यार्थप्रकाश सुभाषाविभूषित विद्या विद्याधन्धमोक्षविषये नवमः समुल्लाः सम्म’ ॥ & है।