पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२८१

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दशम समुल्लास: । २७१ श्रुतिस्मृत्युदित धर्ममतुतिष्ठन् हि मानवः। इह कोत्तमवाहनों प्रत्य चानुत्तम सुखम् 7 ७ ॥ योsवमन्येत ते मृले हेतुशास्त्रआया द्विजः । स सामूभिर्बहिष्का नास्तिको वेदनिन्द कः ॥ ८ ॥ बेदः स्मृति सदाचारः स्वस्य च प्रियमामनः। एतच्चतुविधे ग्राहुः साक्षाद्धस्य लक्षण ॥ & !। अर्थकामेश्व्सक्तान धर्मज्ञान विधीयते । धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाण परम श्रुतिः } १० ॥ वैदिकेः कर्नभि: पुॉनेकांइजमनास् । कायेः शोरसंस्कारः पवनः स्य चह व ll ११ ॥ केन्तः षाड वर्ली ब्राह्मणस्य विधीयते। 9 ( - राजन्यबन्धोबीच श्यस्य इयाध तः' ॥ १२ ॥ मनु० अ० २ । श्लो० १-० से ६। ८ It ११-१३ । २६ 1 ६५ ॥ संतुष्यों को सदा इस बात पर ध्यान रखना चाiहैये कि जिसका सेवन रग- इषरहित विद्वान लोग नियं करें जिसको हृद्य अर्थात् आत्मा से सत्य कर्त्तव्य जानें वहीं धर्म माननीय और करणीय है। १ 1 क्योंकि इस संसार में अत्यन्त कामाता और निष्कामता श्रेष्ठ नहीं है । वेदार्थज्ञान और वेदोक्त कर्म ये सब कामना ही से । सिद्ध होते हैं !। २ ॥ जो कोई कहै कि में निरिच्छ और निष्काम हू ा होजाऊं तो गह कभी नहीं हो सकता क्योंकि सब काम अर्थात् यज्ञ, सयभपण।दि त्रतयम, नियमरूपी धर्म आदि संकल्प देने से बनते हैं : ३ ॥ क्योकि जो २ स्त, पद, नेत्र मन आदि चलाये जाते है वे सब कामना ही से चलते हैं जो इच्छा न हो तो यात्र का खोलना छौर सींचा भी नहीं हो सकता ॥ ४ ॥ इसलिये पूर्ण वेद मनुस्मृति तथा ऋषिप्रणीत शा, सत्पुरुओं का आचर और जिस २ कमें में अपना अहात्मा प्रथम रहेअथा भय, शहर, लज्ज़ा जिनम म उन कमां की सेवन करना उचित है ! ज कोई मिथ्याभाषण चोरी आदि की इच्छा करता है तभी उसके मात्मा में भय