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२७२ सयार्थकM: ।

शंका, लज्जा अवश्य उत्पन्न होती है इसलिये वह कर्म करने योग्य नहीं : ५ ॥ मनुध्य सम्पूर्ण शालवेद सत्पुरुप का अचार, अपने आत्मा के अविरुद्ध अच्छे प्रकार विचार कर ज्ञाननेत्र करके श्रुति प्रमाण से स्वात्मानुकूल धर्म से प्रवेश करे : ९ ॥ क्योंकि जो मनुष्य वेदांक्त धर्म और जो वेद से आविरुद्ध स्मृयुक्क धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लोक में कीप्ति और मरके सत्तम सुख को प्राप्त होता है AI ७ ॥ श्रुति वेद और स्मृति धर्मशा को कहते है इनसेसब फर्रुव्याsकर्तव्य का निश्चय क- रना चाहिये जो कोई मनुष्य वेद और वेदानुकूल आतप्रन्थों का अपमान करे उस ' को श्रेष्ठ लोग जातिबा करदे क्योंकि जो वेद की निन्दा करता है वही नारिनाक कहता है ८। इसलिये वेद, स्मृति, सत्पुरुष का आ।चार और अपने आत्मा के ज्ञान से अविरुद्ध प्रियाचरण ये चार धर्म के लक्षण अथात् इन्हीं से धमें लक्षित होता है !॥ ९ ॥ परन्तु जो द्रव्यों के लोभ और काम अथोत् विषयसवा में फंसा हुआा नहीं । होता उसी को धर्म का ज्ञान होता है जो धर्म को जानने की इच्छा करें उनके लिये बेद ही परम प्रमाण हैं 1 १० 1 इसी से सब मनुष्यों को उचित है कि वेदोक्त पुण्यरूप कर्षों से त्र।, क्षत्रियवैश्य अपने सन्तानों का निर्घकादि संस्कार करें जो इस जन्म व परजन्म में पवित्र करनेवाला है !1१ १1 ब्राह्मण के सोलहवेंक्षत्रिय के बाईसवें और वैश्य के चौबीसवें वर्ष में केशान्त कर्म और सौरमुण्डन होजाना चाहिये अर्थात् इस विधि के पश्चात् केवल शिखा को रख के अन्य डाढ़ी मूंछ और शिर के बाल सदा मुंडवाते रहना चाहिये अथात् पुन: कभी न रखना और जो शी- प्रधान देश हो तो कामचार है चाहे जितने केश रक्खे और जो अति डष्ण देश हो तो सब शिासहित छेदन करा देना चाहिये कयके शिर में बाल रहने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है डाढ़ी मूंछ रखने से भोजन पान अच्छे प्रकार नहीं होता और उच्छिष्ट भी बालों में रजाता है ॥१२॥ इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिजु । छ । ५ संयम यनमातिप्टेद्विद्वान् यन्तेव वाजिना ॥ १ ॥ इन्द्रिय।णां प्रसइन दोषमृच्छत्यरूश्यम् । सन्नियन्य तु तान्येव तत: सिद्धि नियच्छति ॥ २ ॥ '