पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२८४

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२७४ सत्यथ . !! ए < ग्रासिदैव भूताना कार्य औयोsनुशासन ! वा व मधुरा भलक्ष्ण प्रयोज्या धर्ममिच्छता ॥ १४ ॥ मनु० अ० २ । श्लो° ८८ । ३३ । ४ । ७७ । १०० । ६८। ११० । १३६ । १५३-१५७ री १५ e t मनुष्य का यही मुख्य आचार है कि जो इन्द्रियां चित्त को हर ण करनेवाले विपयों में प्रवृत्त करती हैं उनको रोकने में प्रयत्न करे जैसे घोड़े को सारथि रiक कर शुद्ध मार्ग में चलाता है इस प्रकार इनको अपने वश में करके वर्ममार्ग से इटा के धर्ममार्ग में सदा चलाया करे 11 १11 क्योकि इन्द्रियों को विषयासक्ति और अधर्म में चलाने से मनुष्य निश्चित दोष को प्राप्त होता है और जब इनको जीतकर ध में में चलाता है तभी अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है 1 २ 1। यह निश्चय है के जस अग्नि में इन्धन और घी डालने से बढ़ता जाता है वैसे ही कार्यों के उपभोग से काम शान्त कभी नहीं होता किन्तु बढता ही जाता है इसलिये मनुष्य को विघयासक्त कभी न होना चाहिये ॥ ३ ॥ जो अजितेन्द्रिय पुरुष है उसको विप्रदुष्ट कहते हैं उसके करने से न बेदज्ञान, न स्याग, न यज्ञ, न नियम और न धर्माचरण सिद्धि को प्राप्त होते हैं किन्तु ये सब जितेन्द्रिय धार्मिक जनको सिद्ध होते हैं । ४ 1 इसलिये पांच कमें- न्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रिय और ग्यारहवें मन को अपने वश में करके युक्काहार विहार योग से शरीर की रक्षा करता हुआ सब अ को सिद्ध करे ॥ ५ : जितेन्द्रिय उसको कहते हैं कि जो स्ात सुन के हर्ष और निन्दा के शोक, स्प] कर के सुन अच्छा सुख और दुष्ट स्पर्श से दु:ख, सुन्दर रूप देख के प्रसन्न और दुष्टरूप देख अप्रसन्न, उत्तम भोजन करके आनन्दित और निकृष्ट भोजन करके दु खितसुगन्ध में रुचि और दुर्गन्ध में अरुचि नहीं करता ॥ ६ 1 कभी बिना पूछे वा अन्याय से पूछनेवाले को कि जो कपट से पूछत हो उसको उत्तर न देवे उनके सामने बुद्धिमान जड़ के ससान र हां.जो निष्कपट और जिज्ञासु हो उनको बिना पूछेभी उपदेश करे ॥ ७ ॥ एक धनदूसरे वन्धु कुटुम्ब कुल तीसरी अवस्था, चौंथा उत्तम कर्म और पाचवीं श्रेष्ठ विद्या ये पांच मान्य के स्थान हैं परन्तु धन से उत्तम बन्धु, बन्धु से अधिक अवस्था, अबस्था से श्रेष्ठ कर्म और कर्म से पवित्र विद्यावाले उत्तरोत्तर आधिक माननीय है ॥ ८ ॥ क्योंकि चहे सौ वर्ष का हो परन्तु जो विद्या विज्ञानरहित