पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३१२

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-- | सत्यार्थप्रकाशः ॥ --- | जो पशु मारकर अग्नि में होम करने से पशु वर्ग को जाता है तो यजमान अपने पिता आदि को मारने वर्ग में क्यों नहीं भेजते ! १ !! जो मरे हुए मनुष्यों की तृप्ति के लिये श्राद्ध और तर्पण होता है तो विदेश में जानेवाले मनुष्य को मार्ग का खर्च खाने पीने के लिये वॉवना व्यर्थ है क्योंकि जब मृतक को श्राद्ध तर्पण से अन्न जल पहुंचता है तो जीते हुए परदेश में रहनेवाले वा मार्ग में चलनेहारों को घर में रसोई बनी हुई का पत्तल परोस लोटा भर के उसके नाम पर रखने से क्यों नहीं पहुंचता है जो जीते हुए दूर देश अथवा दश हाथ पर दूर बैठे हुए को दिया हुआ नहीं पहुंचता तो मरे हुए के पास किसी प्रकार नहीं पहुंच सकता! उनके ऐसे युक्तिसिद्ध उपदेश को मानने लगे और उनका मत बढ़ने लगा जब वहुतसे राजा भूमिपति उनके मन में हुए तव पोपजी भी उनकी ओर के क्योंकि इनको जिधर राप्फा अच्छा मिले वहीं चले जायें झट जैन बनने चले जैनों में भी और प्रकार की पोपलीला बहुत है सो १२ वें समुल्लास में लिखेंगे वहुता ने इनका मद स्त्रीकार किया परन्तु कितने कहीं जो पर्वत, काशी, कनौज, पश्चिम, दक्षिण देशवाले थे उन्होंने जैनों का मत स्वीकार नहीं किया था | जैन वेद का अर्थ न जानकर बाहर की पोपलीला भ्रान्ति से वेद पर मानकर वेदों की भी निन्दा करने लगे। उसके पठनपाठन यज्ञोपवीतादि और ब्रह्मचयदि नियमों को भी नाश किया जहां जितने पुस्तक वेदादि के पाये नष्ट किये आव्यों पर बहुतसी रजसत्ता भी चलाई दुःख दिया जव उनको भय शङ्का नरही वे अपने मतवाले गृहत्य और साधुओं की प्रतिष्ठा और वेदमार्गियों का अपमान और पक्षपात से दण्ड भी देने लगे और आप सुख आराम और घमंड में आ फूलकर फिरने लगे पभदेव से लेके नहावीर पर्यन्त अपने तीर्थकरों की अङ्गी २ मूचियां बनाकर पृजा करने लगे अर्थात् पापणादि मूर्तिपूजा की जड़ जैनियों से प्रचलित हुई परमेश्वर का मानना न्यून हुआ पापाणादि मूर्तिपृजा में लगे ऐसा तीनसौ वर्ष पर्यन्त यावर्च में जैनों का राप रहा प्रायः वेदार्थ ज्ञान से शुन्य होगये थे इस बात १ को अनुमान से अढाई सहस्र वर्ष व्यतीत हुए होंगे । ' वाईसी बर्य हुए कि एक शङ्कराचार्य द्रविड़देशात्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मचर्य से न्या। श्रादि सत्र शास्त्रों को पढ़कर सोचने लगे कि अइह ! सत्य आस्तिक वेद मत का । ना थर जैन नास्तिक मत का चलनः वडी हानि की बात हुई है इसको किसी प्रकार इटाना चाहिये शङ्कराचार्य मात्र तो पड़े ही ये परन्तु जनमत के भी पुस्तक