पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

१.FIदशमुझसे ।। | ३०७ ** में महदाकाश ही है ऐसे दी माया, अविद्या, समष्टि, व्यष्टि और अन्त:करण की उपाथियों से ने अज्ञानियों के पृथक् २ प्रतीत हो रहा है वास्तव में एक ही है। देखा ‘प्रप्रिन प्रमाण में क्या कहा है:--- अग्नियेथेको भुवनं प्रविष्ट रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूप प्रतिरूपो बहिश्च ।। कठउ० वल्ली ५ । मं० ६ ॥ जैसे अग्नि लम्बे चौड़े गोल छोटे बड़े सव आकृतिवाले पदार्थों में व्यापक होकर तदाकार दीखता और उनसे पृथक् है वैसे सर्वव्यापक परमात्मा अन्त:करणो में व्यापक होके अन्तःकरणाऽऽकार हो रहा है परन्तु उनसे अलग है।( सिद्धान्ती ) यह भी तुम्हारा कहना व्यर्थ हैं क्योंकि जैसे धट, मठ, मेधा और आकाश को भिन्न गानते हो वैसे कारण कार्यरूप जगत् और जीव को स्नह्म से और ब्रहा को इनसे भिन्न मानले ? ( नवीन ) जैसा अग्नि सबमें प्रविष्ट होकर देखने में तदाकार दीखता है। इसी प्रकार परमात्मा जड और जीवमे व्यापक होकर अकारवाला अशानियों को अकारयुक्त दीखता है वास्तव में नहा न जड़ और न जीव है जैसे जल के सहस्त्र कूड़े धरे हैं। उनमें सूर्य के सहस्त्र प्रतिविम्ब दीखते हैं वस्तुत. सूर्य एक है कूड के नष्ट होने से जल के चलने व फैलने से सूर्य न नष्ट होता न चलता और न फैलता है इसी प्रकार अन्त:करणो मे ब्रह्म का आभास जिसको चिदाभास कहते है पड़ाई जबतक अन्तःकरण है तभीतक जीव है जब अन्तःकरण ज्ञान से नष्ट होता है तब जीव ब्रह्मस्वरूप है। इस चिदाभास को अपने ब्रह्मस्वरूप का अज्ञान कर्ता, भक्ता, सुखी, दु खी, पापी, पुण्यात्मा, जन्म, मरण अपने में आरोपित करता है तबतक संसार के बन्धनों से नहीं छूटता। ( सिद्धान्ती ) यह दृष्टान्त तुम्हारा व्यर्थ है क्योंकि सूर्य आकारवाला जल कुडे भी साकार हैं सूर्य जल कूड़े से भिन्न और सूर्य से जल कूड़े भिन्न हैं तभी प्रतिविम्ब पड़ता है यदि निराकार होते तो उनका प्रतिविम्व कभी न होता और जैसे परमेश्वर निराकार सर्वत्र अाकाशवत् व्यापक होने से ब्रह्म से कोई पदार्थ वा पदार्थ से ब्रह्म पृथक् नहीं होसकता और व्याप्यव्यापक सम्बन्ध से एक भी नहीं हो सकता अर्थात् अ- | न्वयव्यतिरेकभाव से देखने से व्याप्यव्यापक मिले हुए और सदा पृथक् रहते हैं जो ! । | एक हो तो अपने में व्याप्यव्यापक भाव सम्बन्ध कभी नहीं घट सकता सो बुइ