पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३२०

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सत्यार्थप्रकाश । -..-04:49, 10 February 2019 (UTC)~ खण्डन करते हो ? हमको तो वसिष्ठ शङ्कराचार्य और निश्चलदास आदि अधिक दीखते हैं । ( सिद्धान्त ) तुम विद्वान् हो वा विद्वान् ? ( नवीन ) हम भी कुछ विद्वान् हैं । ( सिद्धान्ती ) अच्छा तो वसिष्ठ शङ्कराचार्य और निश्चलदास के पक्ष का हमारे सामने स्थापन करो हम खण्डन करते है जिसका पक्ष सिद्ध है। वही बड़ा है । जो उनकी और तुम्हारी वात अखण्डनीय होती तो तुम उनकी युक्तियां लेकर हमारी बात को खण्डन क्यों न कर सकते हैं तब तुम्हारी और उनकी बात माननीय होवे, अनुमान है कि शङ्कराचार्य आदि ने तो जैनियों के मत के खण्डन करने ही के लिये यह मत स्वीकार किया हो क्योकि देश काल के अनुकूल अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिये बहुत से स्वार्थी विद्वान् अपने आत्मा के ज्ञान से विरुद्व भी कर लेते है और जो इन बातें को अर्थात् जीव ईश्वर की एकता जगत् मिथ्या आदि व्यवहार सच्चा नहीं मानते थे तो उनकी बात सच्ची नहीं हो सकती और निश्चलदास का पाण्डित्य देखो ऐसा है जीव ब्रह्माऽभिन्नचेतनत्वात् उन्होंने “वृत्तिप्रभाकर में जीव ब्रह्म की एकता के लिये अनुमान लिखा है कि चेतन होने से जीव ब्रह्म से अभिन्न है यह बहुत कम समझ पुरुष की बात के सदृश बात है क्योंकि साधर्म्यमाने से एक दूसरे के साथ एकता नहीं होती वैवयं भेदक होता है जैसे कोई कई कि पृथिवी जलाइभिन्ना जडत्यात् जड के होने से पृथिवीं जल से अभिन्न है जैसा यह वाक्य सङ्गत कभी नहीं हो सकता वैसे निश्चलदासजी का भ लक्षण व्यर्थ है क्योंकि जो अल्प अल्पज्ञता और भ्रान्तिमत्वादि धर्म जीव में ब्रह्म से और सर्वगत सर्वज्ञता र निभ्रन्तित्वादि वैधम्र्य ब्रह्म में जीव से विरुद्ध हैं इससे ब्रह्म और जीव भिन्न २ हैं जैसे गन्ववत्व कठिनत्व आदि भूमि के धर्म रसवत्व द्रवत्वादि जल के धर्म के विरुद्व होने से पृथिवी और जल एक नहीं । वैसे जीव और ब्रह्म के वैधम्र्य होने से जीव और ब्रह्म एक ने कभी थे न हैं और न कभी होंगे इतने ६ से निश्चलदासादि को समझ लीजिये कि उनमें कितना पाण्डित्य, या अंर जिसने योगवासिष्ठ बनाया है वह कोई आधुनिक वेदान्ती था न व मीकि असिष्ट अर रामचन्द्र का बनाया वा कहा सुना है क्योंकि वे मयं वदानुयाय ५ वेद म विरुद्व न बना सकते और न यह सुन सकते थे। ( प्रश्न) व्याम। । । शारिक मूत्र बनाउन भी जीव त्रदा की एकता दीखनी ६ देखा • सम्पाद्याऽऽविर्भावः स्वन शुदात् ॥ १ ॥