पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३२१

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एकादशनमुल्लाः ।। ब्राह्मण जैमिनरुपन्यासादिभ्यः ॥ २ ॥ चितितन्मात्रेण तदात्मकत्वादित्यौडुलोमः ॥ ३ ॥ एवमप्युपन्यासात् पूर्वभावादविरोधं वादरायणः ॥ ४ ॥ अत एव चानन्याधिपतिः ॥ ५ ॥ वेदान्तद० अ० ४। पा० ४ । सू० १ । ५-७।६।। अर्थात जीव अपने स्वरूप को प्राप्त होकर प्रकट होता है जो कि पूर्व ब्रह्मस्वरूप था क्योंकि स्व शब्द से अपने ब्रह्मस्वरूप का अहण होता है ।। १ ।। अयमात्मा अपह्तपाप्मा' । इत्यादि उपन्यास ऐश्वर्य प्राप्तिपर्यन्त हेतु से ब्रह्म स्वरूप से जीव स्थित होता है। ऐसा जैमिनि आचार्य का मत है ।। २ ।। और औडुलोमि चायं तदात्मकस्वरूप निरूपणादि बृहदारण्यक के हेतुरूप के वचनों से चैतन्य मात्र स्वरूप से जीव मुक्ति में स्थित रहता है ।। ३ ।। व्यासजी इन्हीं पूर्वोक्त उपन्यासादि ऐश्वर्य प्राप्तिरूप हैतुओ से जीव का ब्रह्मस्वरूप होने में अविरोध मानते है ।। ४ ।। योगी ऐश्वर्यसहित अपने ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त होकर अन्य अधिपति से रहित अर्थात् स्वय | आप अपना और सबका अधिपतिरूप वृह्मस्वरूप से मुक्ति में स्थित रहता है ।। ५ ।। | (उत्तर ) इन सूत्रों का अर्थ इस प्रकार नही किन्तु इनका यथार्थ अर्थ यह है । सुनिये । जबतक जीव अपने स्वकीय शुद्धस्वरूप को प्राप्त सब मलों से रहित होकर पवित्र नहीं होता तबतक योग से ऐश्वर्य को प्राप्त होकर अपने अन्तर्यामि ब्रह्म को प्राप्त होके आनन्द में स्थित नहीं हो सकता ।। १ ।। इसी प्रकार जब पापादि रहित ऐश्वर्ययुक्त योगी होता है तभी ब्रह्म के साथ मुक्ति के आनन्द को भोग सकता है। ऐसा जैमिनि अाचार्य का मत है ॥ २ ॥ जब अविद्यादि दोष से छूट शुद्ध चैतन्य मात्र स्वरूप से जीव स्थिर होता है तभी तदात्मकत्व अर्थात् ब्रह्मस्वरूप के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होता है ।। ३ ।। जब ब्रहा के साथ ऐश्वर्य और शुद्व विज्ञान को जीते ही जीवन्मुक्त होता है तब अपने निर्मल पूर्व स्वरूप को प्राप्त होकर अनन्दित होता है ऐसा व्यासमुनिजी का मत है ॥ ४ ।। जब योगी का सत्य सङ्कल्प हाता है तब स्वयं परमेश्वर को प्राप्त होकर मुक्तिसुख को पाता है वहां रवावीन न्वतन्त्र रहता है जैसा संसार में एक प्रधान दूसरा अप्रधान होता है वैसा मुक्त में || नहीं किन्तु सत्र मुक्त जीव एक से रहते है।। ५ ।। जो ऐसा न हो तो.--.