पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३२३

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एकदशनमुल्ला ।।। - - -- ब्रह्म का भेद प्रतिपादन हेतुओं में प्रकृति और जीवों से ब्रह्म भिन्न है ।। इसी सर्वव्यापक ब्रह्म में जीव का योग वा जीव में ब्रह्म कर योग प्रतिपादन करने से जीव और | ब्रह्म भिन्न हैं क्योंकि योग भिन्न पदार्थ का हुआ करता है। इस ब्रह्म के अन्तयाम । आदि धर्म कथन किये हैं और जीव के भीतर व्यापक होने से व्याप्य जीव व्यापक | ब्रहा से भिन्न है क्योंकि व्याप व्यापक सम्बन्ध भी भेद में संघटित होता है। जैसे परमात्मा जीव से भिन्नस्वरूप है वैसे इन्द्रिय, अन्ते करण, पृथिवी अदि भूत, दिशा, वायु, सूर्यादि दिव्यगुणों के भोग मे देवतावाच्य विद्वानों से भी परमात्मा भिन्न है ।। गुहां प्रविष्टौ सुकृतस्य लेाके इत्यादि उपनिषदों के वचनों से जीव और परमात्मा भिन्न हैं। वैसा ही उपनिषदों में बहुत ठिकाने दिखलाया है। * शरीरे भव शारीर. शरीरधारी जीव ब्रह्म नहीं है क्योंकि ब्रह्म के गुण, कर्म, स्वभाव जीव में नहीं घटते ।। (अधिदैव } सब दिव्य मन अदि इन्द्रियादि पदार्थों ( अधिभूत) पृथिव्यादि भूत (अध्यात्म ) सब जीवों में परमात्मा अन्तयमीरूप से स्थित है क्योंकि उसी परमात्मा के व्यापकत्वादि धर्म सर्वत्र उपनिषदों में व्याख्यात हैं। शरीरधारी जीव ब्रह्म नहीं है। क्योंकि ब्रह्म से जीव का भेद स्वरूप से सिद्ध है ।। इत्यादि शारीरिक सूत्रों से भी स्वरूप से ही ब्रह्म और जीव का भेद सिद्ध है वैसे ही वेदान्तियों का उपक्रम और उपसहार भी नहीं घट सकता क्योंकि “उपक्रम अर्थात् आरम्भ ब्रह्म से और “उपसंहार अर्थात् प्रलय भी ब्रह्म ही में करते हैं जब दूसरा कोई वस्तु नही मानते तो उत्पत्ति और प्रलय भी ब्रह्म के धर्म होजाते हैं और उत्पत्ति विनाशरहित चूह्म का प्रतिपादन वेदादि मत्यशास्त्रों में किया है वह नवीन वेदान्तियों पर कोप करेगा क्योंकि निर्विकार, अपरिणाम, शुद्ध, सनातन, निभ्रान्तत्वादि विशेपणयुक्त ब्रहा में विकार, उत्पत्ति और अज्ञान अदि का सभव किसी प्रकार नहीं हो मकता। तथा उपसंहार ( प्रलय) के होने पर भी चूह्या कारणात्मक जड़ और जीव बराबर बने रहते हैं इसलिये उपक्रम र उपसहार भी इन वेदन्तियों की कल्पना झठी हैं एमी अन्य बहुतसी अशुद्ध बातें हैं कि जो शास्त्र और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्व है ।। , इसके पश्चात् कुछ जैनियो और शङ्कराचार्य के अनुयायी लोगों के उपदेश के संस्कार आर्यावर्स में फैले थे और अपस में खण्डन मण् इद भी चलता था शराचार्य के तीनसौ वये के पश्चात् उज्जैन नगरी में विक्रमादित्य राजा कुछ प्रतापी हा जिसने सब राजा के मध्य प्रवृत्त हुई लड़ाई को मिटाकर शान्ति न्धपन की नपान