पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३२८

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१ ३ १८ इत्यार्थप्रकाश || | अ = = = = राख धारण करने से मुक्ति मानते हैं तो राख में लेटनेहारे गदहा आदि पशु और घुघुची आदि के धारण करनेवाले भील कजर आदि मुक्ति क्यों न पावें और सुअर, कुत्ते, गधा आदि राख में लटनेवालो की मुक्ति क्यों नहीं होती ? ( प्रश्न ) कालाग्निरुद्रोपनिषद् में भस्म लगाने का विधान लिखा है वह क्या झूठा है ? और व्यायुप जमदग्ने ० यजुवेदवचन । इत्यादि वेदमन्त्रो से भी भस्मधारण का विधान और पुराणों में रुद्र की आख के अश्रुपात से जो वृक्ष हुआ उसी का नाम रुद्राक्ष है इसीलिये उसके धारण में पुण्य लिखा है एक भी रुद्राक्ष धारण करे तो सब पापों से छूट स्वर्ग को जाय यमराज और नरक का डर न रह (उत्तर) कालाग्निरुद्रोपनिषद् किसी रखेड़िया मनुष्य अर्थात् राख धारण करनेवाले ने बनाई है क्योकि “यस्य प्रथमा रेखा सा भूलक इत्यादि वचन उसमें अनथक है जो प्रतिदिन हाथ से बनाई रेखा है वह भूलोक वा इसका वाचक कैसे हो सकती है ? और जो व्यायुप जमदग्ने इत्यादि मत्र हैं वे भस्म वा त्रिपुड़ धारण के वाची नही किन्तु चक्षुर्वे जमदग्निः शतपथ । हे परमेश्वर ! मेरे नेत्र की ज्योति ( व्यायुधम् ) तिगुणी अर्थात् तीनसौ वर्षपर्यन्त रहै और मै भी ऐसे धर्भ के काम करू कि जिससे दृष्टि नाश न हो। भला यह कितनी बड़ी मूर्खता की बात है कि आंख के अश्रुपात से भी वृक्ष उत्पन्न हो सकता है क्या परमेश्वर के सृष्टिक्रम को कोई अन्यथा कर सकता है ? जैसा जिसे वृक्ष का बीज परमात्मा ने रचा है उसी मे वह वृक्ष उत्पन्न हो सकता है अन्यथा नहीं इससे जितना रुद्राक्ष, भस्म, तुलसी, कमलाक्ष, घास, चन्दन आदि को कण्ठ में धारण करना है वह सब जगली प-- शुवत् मनुष्य का काम है ऐसे वाममार्गी और शैव बहुत मिथ्याचारी विरोव और कर्तव्ये कर्म के त्यागी होते हैं उनमें जो कोई श्रेष्ठ पुरुष है वह इन बातों का विश्वास न करके अच्छे कर्म करता है जो रुद्राक्ष भस्म धारण से यमराज के दूत डरते हैं तो पुलिस के सिपाही भी डरते होंगे जब रुद्राक्ष भस्म धारण करनेवालों से कुत्ता, सिंह, सप्प, विच्छ, मक्खी और मच्छर आदि भी नहीं डरते तो न्यायाधीश के गण क्यों डेरेंगे ? ( प्रश्न ) वाममार्गी और शैव तो अच्छे नहीं परन्तु वैष्णव तो अच्छे है ? ( उत्तर ) यह भी वेदविरोधी होने से उनसे भी अधिक बुरे हैं। प्रश्न ) नमस्ते रुद्र मन्यवे' । “वैष्णवमसि' । 'वामनाय च । १६ गणानात्वा गणपति हवामहे । ‘‘भगवती भूया.” । “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च इत्यादि वेदप्रमाण से शवादि मत सिद्ध होते हैं पुनः क्यों खण्डन करते हो ? ( उत्तर ) इन