पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३३२

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सत्यार्थप्रकाश. ।। । | ३ ३ ३ प्रमाण करके अग्नि ही से तपाना चक्राङ्कित लोग स्वीकार करें तो अपने २ शरीर को भाड़ में झोंक के सब शरीर को जलायें तो भी इस मन्त्र के अर्थ से विरुद्ध है। क्योंकि इस मन्त्र में सत्यभाषणादि पवित्र कर्म करना तप लिया है । ऋतं तपः सत्यं तपः श्रुतं तपः शान्तं तपो दमस्तपः । तैत्तिरी० प्र० १० । ऋ० ८ ॥ इत्यादि तप कहता है अर्थात् ( ऋतं तपः ) यथार्थ शुद्धभाव, सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य करना, मन को अधर्म में न जाने देना, बाह्य इन्द्रियों को अन्यायाचरणों में जाने से रोकना अर्थात् शरीर इन्द्रिय और मन से शुभ कर्मों का आचरण करना, वेदादि सत्य विद्याओं का पढ़ना पड़ाना, वेदानुमार आचरण करना आदि उत्तम धर्मयुक्त कर्मों का नाम तप है धातु को तपा के चमडी को जलाना तप नहीं कहाता । देखो चक्रांकित लोग अपने को बड़े वैष्णव मानते हैं। परन्तु अपनी परम्परा और कुकर्म की ओर ध्यान नहीं देते कि प्रथम इनका मूलपुरुप शठकोप' हुआ कि जो चक्रांकित ही के ग्रन्थ और भक्तमाल ग्रन्थ जो नाभा डूम ने बनाया है उनमें लिखा है: विक्रीय शूर्प विचचार योगी । इत्यादि वचन चक्राकर्ता के ग्रन्थों में लिखे हैं शठकोप योगी शूप को बना वेंचकर विचरता था अर्थात् केजर जाति में उत्पन्न हुआ था जब उसने ब्राह्मण से पढ़ना वा सुनना चाहा होगा तव ब्राह्मणों ने तिरस्कार किया होगा उसने ब्राह्मणों के विरुद्ध सम्प्रदाय तिलक चक्रांकित आदि शास्त्रविरुद्ध मनमानी वालें चलाई होंगी उसका चेला **मुनिवाहन जो कि चाण्डाल वर्ण में उत्पन्न हुआ था उसका चेला याचनाचार्य' जे कि यवनकुलोत्पन्न था जिसका नाम बदल के कोई २ यामुनाचार्य' भी कहते हैं उनके पश्चात् रामानुज' ब्राह्मणकुल में उत्पन्न होकर चक्राकित हुशा उसके पूर्व कुछ भाषा के प्रेन्थ बनाये थे रामानुज ने कुछ संस्कृत पढ के संस्कृत में श्लोकबद्व ग्रन्थ : और शारीरिक सूत्र और उपनिषदों की दीका शङ्कराचार्य की टीका से विरुद्ध वनाई और शङ्कराचार्य की बहुतसी निन्दा की जैसा शङ्कराचार्य का मत है कि अद्वैत अर्थात् जीव ब्रह्म एक ही हैं दूसरी कोई वस्तु वास्तविक नही, जगन् प्रपंच सब मिथ्या मायारूप अनित्य है। इससे विरुद्व रामानुज का जीव ब्रह्म और माया तीन निय हैं ।