पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३३५

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" 1 4 एकादशसमुल्लास. ।। - ३२५

- - माहात्र लिखा ? ( उत्तर ) नाम लेने की तुम्हारी रीति उत्तम नहीं जिस प्रकार तुम नाग मरण करते हो वह रीति झूठी है। (प्रश्न ) इमारी कैम रीति है ( उत्तर) वेदविरुद्ध । ( प्रश्न ) भल। अब आप हमको वेदोक्त नामस्मरण की रीति वतलाइये ? ( उत्तर ) नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिये जैसे "न्यायकारी ईश्वर का एक नाम हैं इस नाम से जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपात रहित होकर परमात्मा सबै का वधावत् न्याय करता है वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना अन्याय कभी न करना इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है। ( प्रश्न ) हम भी जानते हैं कि परमेश्वर निराकार है परन्तु उसने शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य और देवी आदि के शरीर वारण कर राम कृणादि अवतार लिये इससे उसकी मूर्ति बनती है क्या यह भी वात झूठी है ? ( उत्तर ) हा २ झूठी क्येाकि • अज एकपात्' (अकायम् इत्यादि विशेपणो से परमेश्वर को जन्म मरण और शरीरधारणरहित वेदों में कहा है तथा युक्ति से भी परमेश्वर का अवतार कभी नहीं हो सकता क्योंकि जो आकाशवत सर्वत्र व्यापक अनन्त और सुख दु ख दृश्यादि गुणरहित है वह एक छोटे से ये गर्भाशय और शरीर में क्योंकर सकता है ? आता जाता वह हैं कि जो एकदशीय हो और जो अचल अदृश्य जिसके विना एक परमाणु भी खाली नहीं है उसका अवतार कहना जानो बन्ध्या के पुत्र का विवाह कर उसके पौत्र के दर्शन करने की बात कहना है । ( प्रश्न ) जव परमेश्वर व्यापक है तो मूर्ति में भी है। पुन चाहे किसी पदार्थ में भावना करके पूजा करना अच्छा क्यों नहीं ? देखो: न काष्ठे विद्यते देवो ने पाषाणो न मृण्मये । भावे हि विद्यते देवतस्माद्भावो हि कारणम् ।। परमेश्वर देव न काष्ठ ने पाषाण न मृत्तिका से बनाये पदार्थों में है किन्तु परमेश्वर तो भाव में विद्यमान है जहा भाव करें वहां ही परमेश्वर सिद्ध होता है। ( उत्तर) जब परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो किसी एक वस्तु भे परमेश्वर की भावना करना अन्यत्र न करना यह ऐसी बात है कि जैसी चक्रवर्ती राजा को सबै राज्य की सत्ता से छुड़ा के एक छोटीसी झापडी का स्वामी मानना देखो यह कितना बड़ा अपमान है। वैसा तुम परमेश्वर का भी अपमान करते हो।जब व्यापक मानते हो तो वाटिका में