पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३३७

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एकादशससुजः ।। ३२७ । प्राणा इहागच्छन्तु सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा । अात्मेहागच्छतु सुखं चिरं तिष्ठतु स्वाहा । इन्द्रियाणीहागच्छन्तु सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा ॥ | इत्यादि वेदमन्त्र हैं क्यों कहते हो नहीं है ? ( उत्तर ) अरे भाई ! बुद्धि को थोड़ी सी तो अपने काम में लाओ। ये सब कपोलकल्पित चाममार्गियों की वेदविरुद्व तन्त्रमन्थों की परेपरचित पंक्तियां हैं वेदवचन नहीं । ( प्रश्न ) क्या तन्त्र झुठा १ ( उत्तर ) हां, सर्वथा झूठा है, जैसे आवाहन प्राणप्रतिष्ठादि पाषाणादि मूर्त्तिविषयक वेदों में एक मन्त्र भी नहीं वैसे ‘‘स्नानं समर्पयामि इत्यादि वचन भी नहीं अथन् इतना भी नहीं है कि “पाषाणादि मूर्ति रचयित्वा मन्दिरेषु संस्थाप्य गन्धादिभिरचयेत्' अर्थात् पाषाण की मूर्ति बना मन्दिरों में स्थापन कर चन्दन अक्षतादि से पूजे ऐसे लेशमात्र भी नहीं ( प्रश्न ) जो वेदों मे विधि नहीं तो खण्डन भी नहीं है और जो खण्डन है तो प्राप्तौ सत्य निषेधः मूर्ति के होने ही से खण्डन हो सकता है । ( उत्तर ) विधि तो नहीं परन्तु परमेश्वर के स्थान में किसी अन्य पदार्थ को पूजनीय न मानना और सर्वथा निषेध किया है क्या अपूर्वविधि नही होता ? सुनो यह है: अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते। ततो भय इव ते तमो य उ सम्भूत्या रता. ॥ १ ॥ यजु० ॥ अ० ४० । में 8 ॥ न तस्य प्रतिमा श्रस्ति ।। २ ।। यजु० ॥ अ० ३२ ।। मं० ३॥ , यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ३ ।। यन्मनसा न मनुते येनार्मनो मतम् ।। तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।। ४ ।। यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षुषि पश्यन्ति । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ५ ॥