पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३३८

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३२८ सत्यार्थप्रकार ।। । यात्रेण न शृणोति यन श्रोत्रमिदॐ श्रुतम् ।। तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ६ ॥ यत्प्राणन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते । तदेव ब्रह्म वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।। ७॥ केनोपान० ॥ जा असंभूत अथात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण को ब्रह्म के स्थान में उपासना करत ह व अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दु ख सागर में डूबते हैं। और सभूति जी कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथिवी अदि सूत पाषाण और वृक्षादि • वयत्र र मनुष्यादि के शरीर को उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं वे उस अन्ध कार से भी अधिक अन्धकार अन् महामूख चिरकाल घार दु.खरूप नरक में । गिरके महाकलश भागने हैं ।। १ ।। जे सब जगन् में व्यापक है उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा परिमाण सादृश्य वा मृत्ति नहीं है ।। २ ।। जो वाणी को इयत्ता अर्थात् यह जल है लाजिये वैसा विपय नहीं और जिसके धारण र सत्ता से वाण की प्रवृत्ति होती है उसो का ब्रह्म जान अर उपासना कर अर जा उसस भिन्न है वह उस नोय नहा ।। ३ ।। जा मन से इयत्ता कर के मन में नहीं अनः जा नन को जानना है उसो का ब्रा तू जान र उसो की उपासना कर जा उन भिन्न जीव अर अन्तःकरण है उसको उपासना ब्रह्म के स्थान में मत । फर || ४ || जो आप स नइ दास पड़ता और जिस से सव आख देखता है उसी । • ज्ञान में उस को उपासना कर और जो उससे भिन्न नृ7, विद्युत् । र अनि दि जड पदार्थ हैं उनको उपासना भत कर ! ५ ॥ ज श्रेत्र से नहीं । | ना ना और जिसम छ सुनता है इसी के तू ब्रा जान नर उसी की 3. । ५, ६ ६ र उमन भिन्न शब्दादि की उपासना उनके यान में मन ऊर।। ६ ।। ।

५५ २३ रन ना ना जिममें प्राण गमन के प्राप्त होता है उसी क्ष । | ५.१ १ । र उनकी उपासना ८ जा यह उससे भिन्न छु । उसका उप• !

41 • • ५५ ।। ३ ।। :: :: निब ।। नव प्राप्त र अप्राप्त की । * . * (1" ; ; ; ; ; है। उ बा ३ उटा देना "अप्रत" । 1. ;-::' । । ८. :: 54, 5 में दिना, दुई। 6: म नत ! ५ । । । । १ : ' :.:54. :: :: : १ : ३ !