पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३३९

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एकादशसमुल्लासः ।। में अप्राप्त परमेश्वर के ज्ञान में प्राप्त का निषेध किया है । इसलिये पाषाणादि मूर्ति पूजा अत्यन्त निषिद्ध है । ( प्रश्न ) मूर्तिपूजा में पुण्य नहीं तो पाप भी नहीं है। ( उत्तर ) कर्म दो ही प्रकार के होते हैं:-विहितः-जो कर्तव्यता से वेद में सत्यभापणादि प्रतिपादित हैं, दूसरे निषिद्ध-जो अकर्तव्यता से मिथ्याभाषणादि वेद में निषिद्ध है जैसे विहित का अनुष्ठान करना वह धर्म उसका न करना अधर्म है वैसे ही निषिद्ध कर्म का करना अधर्म और न करना धर्म है जब वेदों से निषिद्ध मूर्तिपूजादि कर्मों को तुम करते हो तो पापी क्यों नहीं ? (श्न ) देखो ! वेद अनादि हैं उस समय मूर्ति का क्या काम था क्योंकि पहिले तो देवता प्रत्यक्ष थे यह रीति तो पीछे से तंत्र और पुराणों से चली है जब मनुष्य का ज्ञान और सामथ्र्य न्यून होगया तो परमेश्वर को ध्यान में नहीं लासके और मूर्ति का ध्यान तो कर सकते हैं इस कारण अज्ञानियों के लिये मूर्तिपूजा है, क्योंकि सीढी २ से चढ़े तो भवन पर पहुंच जाय पहिली सीढ़ी छोड़कर ऊपर जाना चाहे तो नहीं जा सकता इसलिये मूर्ति प्रथम सीढी है इसको पूजते २ जब ज्ञान होगा और अन्त:करण पवित्र होगा तव परमात्मा का ध्यान कर सकेगा जैसे लक्ष्य का मारनेवाला प्रथम स्थूल लक्ष्य में तीर गोली वा गोला आदि मारता २ पश्चात् सूक्ष्म में भी निशाना मार सकता है वैसे स्थल मूर्ति की पूजा करता २ पुनः सूक्ष्म ब्रह्म को भी प्राप्त होता है । जैसे लड़कियां गुडियों का खेल तबतक करती हैं कि जबतक सचे पति को प्राप्त नहीं होती इत्यादि प्रकार से मूर्तिपूजा करना दुष्ट काम नहीं ( उत्तर ) जब वेदविहित धर्म और वेदविरुद्धाचरण में अधर्म है तो पुनः तुम्हारे कहने से मूर्तिपूजा करना अधर्म ठहर जो २ ग्रन्थ वेद से विरुद्ध है उन २ का प्रमाण करना जानो नास्तिक होना है, सुनो:नास्तिको वेदनिन्दकः ॥ १ ॥ मनु० २ । ११ ॥ या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः । सर्वास्ता निष्फलाः प्रत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः ॥ २ ।। उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोन्यानि कानिचित् । तान्यवक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च ॥ ३ ॥ मनु० अ० १२ । ६५ । ६६ ।। । ।। मनुजी कहते हैं कि जो वेदों की निन्दा अर्थात् अपपान, त्याग, विरुद्धचरण ।