पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३४

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लाचरण कहाता है । ग्रन्थ के प्रारम्भ से ले के समाप्तिपर्यन्त सत्याचार का करना ही मङ्गलाचरण है न कि कहीं मङ्गल और कहीं अमङ्गल लिखना । देखिये महाशय महर्षियों के लेख को-


यान्यनवद्यानि कमणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि ॥

यह तैत्तिरीयोपनिषद् प्रपाठक ७ । अनु॰ ११ का वचन है । हे सन्तानो ! जो “अनवद्य” अनिन्दनीय अर्थात् धर्मयुक्त कर्म हैं वे ही तुमको करने योग्य हैं अधर्म्मयुक्त नहीं इसलिये जो आधुनिक ग्रन्थों में “श्रीगणेशाय नम” “सीतारामाभ्यां नमः” “राधाकृष्णाभ्यां नमः” “श्रीगुरुचरणारविन्दाभ्यां नमः” “हनुमते नमः” “दुर्गाये नमः” “वटुकाय नमः” “भैरवाय नमः” “शिवाय नमः” “सरस्वत्यै नमः” “नारायणाय नमः” इत्यादि लेख देखने में आते हैं इनको बुद्धिमान् लोग वेद और शास्त्रों से विरुद्ध होने से मिथ्या ही समझते हैं क्योंकि वेद और ऋषियों के ग्रन्थों में कहीं ऐसा मङ्गलाचरण देखने में नहीं आता और आर्षग्रन्थों में “ओ३म्” तथा “अथ” शब्द तो देखने में आते हैं । देखो-

“अथ शब्दानुशासनम्” अथेत्ययं शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते । इति व्याकरणमहाभाष्ये।

“अथातो धर्मजिज्ञासा” अथेत्यानन्तर्ये वेदाध्ययनान्तरम् । इति पूर्वमीमांसायाम् ।

“अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः” अथेति धर्मकथनानन्तर धर्मलक्षणं विशेषेण व्याख्यास्यामः । वैशेषिकदर्शने ।

“अथ योगानुशासनम्” अथेत्ययमधिकारार्थः । योगशास्त्रे ।

“अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः” सांसारिकविषयभोगानन्तरं त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्यर्थः प्रयत्नः कर्तव्यः । सांख्यशास्त्रे ।

“अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” इदं वेदान्तसूत्रम्।